कोरोना महामारी ने पूरे देश में कहर बरपा रखा है. हालात कई जगहों पर खराब होती जा रही है. कई जगहों की अव्यवस्था को लेकर जमकर रिपोर्टिंग होने से हालात में सुधार हुआ तो कई जगह ऐसी भी हैं जहां पर अव्यवस्था, सुस्ती, लापरवाही बनी हुई है.
बिहार में भी कई जगह ऐसी ही लचर हैं, जहां अव्यवस्था ऐसी फैली है कि सब भगवान भरोसे ही लगता है.
मुझे बिहारी होने पर बहुत गर्व है. पर मैं चाहती हूं कि इतिहास पर गर्व करने से अधिक मुझे वर्तमान पर गुरूर हो पाए.
कोरोना के लॉकडाउन के साथ ही मैंने ग्राउंड पर रहने का निर्णय किया था. दिल्ली तो हमेशा ही स्पॉटलाइट में रहती है, सो सबसे अधिक कोरोना रिपोर्टिंग राजधानी में की. राजस्थान का हाल देखा. उत्तराखंड गई. उत्तरप्रदेश में भी कोरोना संक्रमण पर कई रिपोर्ट्स कीं
बिहार का आंकड़ा बढ़ नहीं रहा था पर परिवार और दोस्तों के वॉट्सएप ग्रुप में कई किस्से- कहानियां पढ़ रही थी. सब कह रहे थे कि केस तो कई हैं पर रिपोर्ट नहीं हो रहे. कोई कहता कि टेस्ट हो ही नहीं रहे. किसी ने बताया कि एक परिचित परिवार पूरा का पूरा पॉज़िटिव आने के बाद सामाजिक बहिष्कार के डर से निगेटिव रिपोर्ट के लिए घूस देने की तैयारी कर रहा था.
एक कहानी ये थी कि पॉज़िटिव मरीजों की किसी भी तरह की मॉनिटरिंग नहीं की जा रही थी और दवा से लेकर राशन तक के लिए वो खुद बाजार जा रहे हैं.
जब मैं रिपोर्टिंग के लिए बिहार गई तो ये सारी कहानियां मेरे मन में चल रही थीं. ये इतनी अविश्वसनीय थीं कि मैं उस हिसाब से खबर को आंक ही नहीं रही थी. मैं सोच रही थी कि अस्पतालों का जायज़ा लेने के लिए कहां से परमिशन मांगूं. इजाज़त मांगने के लिए ही मैं NMCH पहुंची थी.
एक दफ़्तर से दूसरे दफ़्तर भेजे जाने के बीच “कोरोना टेस्ट” और “आपातकालीन वॉर्ड” का बोर्ड देखा. फ़ौरन गाड़ी से उतर गई. उतरते ही एक आदमी ने मेरे हाथ में माइक आईडी देखी और हाथ जोड़कर मेरे पास गिड़गिड़ाता हुआ पहुंचा. उसने बताया कि उसका भाई अस्पताल में एडमिट है पर कोई डॉक्टर राउंड पर नहीं आ रहा.
ऑक्सीजन सिलेंडर नर्स के कमरे में रखा है और मरीज़ों को नहीं दिया जा रहा. लाशें भी तीन तीन दिन से पड़ी हुई हैं.
उसकी शिकायत को रिकॉर्ड करते हुए मैं सोचने लगी कि मुंबई और दिल्ली के अस्पतालों में भी शवों के कई दिनों तक पड़े रहने की शिकायत आ रही थी.
जिसे बाद में सुधारा गया. मन ही मन उम्मीद कर रही थी कि प्रसारण के बाद यहां भी स्थिति बदलेगी. पर रिकॉर्डिंग खत्म करते करते मैंने देखा कि मेरे चारों ओर कई और लोग खड़े थे. आंखों में उम्मीद थी, सवाल थे, डर था.
एक ने बताया कि वो दो दिन से कोरोना पॉज़िटिव है पर उसे अस्पताल में एडमिट नहीं किया जा रहा.
एक महिला और उसकी बेटी तीन दिन से बाहर बैठी थीं. उनके पति की कोरोना से मौत हो गई थी पर ना तो शव उन्हें सौंपा गया था. ना ही उन दोनों की टेस्टिंग की बात की गई थी.
सांसों के लिए संघर्ष करते युवक को जो रिश्तेदार अस्पताल लेकर आए थे वो हाल देखकर ही घबरा गए और वापस निकल गए.
अपने हाथों में ऑक्सिजन सिलेंडर उठाए लड़खड़ाते कदम और उखड़ती सांसों के साथ लाचार खड़े एक ग्रामीण डॉक्टर थे.
अब तक मीडिया के आने की ख़बर लग चुकी थी. और धीरे-धीरे ये दिखाने की कोशिश होने लगी कि व्यवस्था भले ही मर चुकी हो, अस्पताल ज़िंदा है.
पर यहां आप दोष किसे देंगे? उन डॉक्टरों को, जो नदारद थे? उन स्वास्थ्यकर्मियों को जो होकर भी कोरोना मरीज़ों से संक्रमण के डर से आगे नहीं आ रहे थे? नेताओं को? अफ़सरों को? या फिर उस सोच को?
लॉकडाउन लोगों को घर में रखने के लिए लगाया गया था. पर उसी लॉकडाउन में प्रशासन को बाहर निकलकर तैयारियां करनी थीं जो उसने नहीं कीं.
जब मैं हाजीपुर के सदर अस्पताल गई तो देखा कि स्वास्थ्यकर्मी ख़ुशी-ख़ुशी केवल एक मास्क में कोरोना टेस्ट कर रहे हैं.
मुमकिन है उन्होंने देखा ही नहीं है कि वो पीपीई किट कैसी दिखती है जिसके ना होने पर शहरों में डॉक्टर उपचार करने से इनकार कर देते हैं.
पुराना सा ग्लव हाथ में पहने. ढीली पड़ती इलास्टिक वाले मास्क को नाक पर अटकाए हाजीपुर के ये स्वास्थ्यकर्मी चार महीने से बिना छुट्टी काम कर रहे थे.
मैंने जानना चाहा कि सभी सुविधाएं मिल रहीं हैं या नहीं. उनकी असहजता देखकर पत्रकार मन को यकीन था कि इन्हें ना बोलने का इशारा है.
पर रेडक्रॉस के एक वॉलंटियर का गुस्सा उबल पड़ा. उसने कह डाला कि चार महीने से ना तो भत्ता मिला है ना तनख्वाह.
फिर अगले ही पल शांत हो गया और कहा संकट की घड़ी है. गुज़र जाएगी. और सब वापस लग गए अपने-अपने काम पर. लेकिन इस सबके बीच मन छटपटा उठा. मैं अपने बिहार पर फिर गर्व करना चाहती हूं.