हिंदू धर्मशास्त्रों में कई त्यौहारों का वर्णन किया गया है। इन त्यौहारों को शास्त्रोक्त तरीके से मनाने का विधान बताया गया है। इसी तरह महीने के शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की सभी तिथियों का महत्व अलग-अलग है और सभी तिथियां देवी-देवताओं को समर्पित है। ऐसी ही एक पुण्यदायी और सभी पापों का अंत कर मनोकामना को पूर्ण करने वाली तिथि महानंदा नवमी है।

महानंदा नवमी व्रत की शास्त्रोक्त कथा के अनुसार एक नगर में एक साहूकार अपनी बेटी के साथ निवास करता था। बेटी बहुत धार्मिक प्रवृति की और दयालु थी।
वह रोजाना एक पीपल के वृक्ष की भक्तिभाव से पूजा करती थी। उस पीपल के वृक्ष में लक्ष्मी जी का वास था। एक दिन लक्ष्मी जी ने साहूकार की बेटी से मित्रता कर ली।उसके बाद एक दिन लक्ष्मी जी साहूकार की बेटी को अपने घर ले गयीं और उसका खूब आदर सत्कार करते हुए खिलाया-पिलाया। उसके बाद बहुत से कीमती उपहार देकर अपनी मित्र को विदा कर दिया।
साहूकार की बेटी को विदा करते समय लक्ष्मी जी ने कहा कि अब मुझे कब अपने घर बुला रही हो इस पर साहूकार की बेटी काफी उदास हो गई और उदास चेहरे से उसने लक्ष्मीजी को अपने घर आने का न्यौता दे दिया।
घर आकर उसने अपने पिता को लक्ष्मीजी को निमंत्रण देने की बात बताई और कहा कि लक्ष्मी जी का स्वागत हम कैसे करेंगे। इस पर साहूकार ने जवाब दिया कि हमारे पास जो भी कुछ है उसी से लक्ष्मी जी का दिल से स्वागत करेंगे।
तभी एक चील उनके घर के ऊपर से गुजर रह रही थी उसने उनके घर में हीरों का हार गिरा दिया। इस हार को बेचकर कर साहूकार की बेटी ने लक्ष्मी जी के लिए सोने की चौकी, सोने की थाली और दुशाला खरीद लिया।
लक्ष्मीजी थोड़ी देर बाद गणेश जी के साथ अपनी मित्र के घर पर पधारीं। उस कन्या ने लक्ष्मी-गणेश दोनों की खूब सेवा की। उन्होंने उस बालिका की सेवा से प्रसन्न होकर उसको समृद्ध और खुशहाल होने का आर्शीवाद दिया।
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