विश्व के सबसे पुराने और सफल लोकतंत्रों में से एक के राष्ट्रपति ने तब एक नया इतिहास रच दिया जब उनके विरुद्ध दूसरी बार महाभियोग का संकल्प पारित हुआ। हालांकि विधायिका के उच्च सदन द्वारा अभी इस मामले में सुनवाई बाकी है, लेकिन निम्न सदन द्वारा ऐसे संकल्प पारित करने के बाद यह सिद्ध हो गया है कि आज विश्व में लोकतांत्रिक शासन पद्धति जनहित की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण है। अगर दूसरे सदन ने सुनवाई के बाद उन्हें दंडित करने का निर्णय किया तो वे भविष्य में फिर कभी राष्ट्रपति चुनाव में भाग नहीं ले सकेंगे। यह राष्ट्रपति कोई और नहीं, बल्कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप हैं।
अमेरिकी कांग्रेस के निम्न सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स ने ट्रंप के विरुद्ध महाभियोग के संकल्प को 232-197 मतों से पारित किया है। हाल ही में व्हाइट हाउस पर जिस प्रकार उनके समर्थकों द्वारा कब्जा करने का प्रयास किया गया, उसने अमेरिका में शांतिपूर्ण शक्ति हस्तांतरण की प्रक्रिया के समक्ष गंभीर चुनौती उत्पन्न कर दी है। इसी कारण, बगावत भड़काने के आरोप पर उनके विरुद्ध महाभियोग का संकल्प लाया गया था। महाभियोग के संकल्प में यह भी लिखा गया है कि ट्रंप ने अमेरिका और इसकी सरकार के संस्थानों की सुरक्षा को गंभीर रूप से खतरे में डाल दिया है।
उन्होंने लोकतांत्रिक प्रणाली की अखंडता को धमकी दी, सत्ता के शांतिपूर्ण संक्रमण के साथ हस्तक्षेप किया और सरकार की इस शाखा को असंवैधानिक सिद्ध करने का प्रयास किया। इस प्रकार उन्होंने राष्ट्रपति के रूप में अमेरिका की जनता के साथ विश्वासघात किया। इसके अतिरिक्त, 1967 में अमेरिकी संविधान में किए गए 25वें संशोधन को लागू करने की भी सिफारिश की गई थी। हालांकि राष्ट्रपति के विरुद्ध संशोधन को लागू किए बिना ही महाभियोग चलाया गया था। अमेरिकी संविधान का 25वां संशोधन यह प्रविधान करता है कि यदि राष्ट्रपति की मृत्यु हो जाती है, या वह इस्तीफा दे देता है, या उसे पद से हटा दिया जाता है, तो उप-राष्ट्रपति उस पद पर किस प्रकार आसीन होगा।
अमेरिकी संविधान में संवैधानिकता की बात करें तो संविधान के अनुच्छेद दो की धारा चार में उल्लेख है कि राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति तथा सभी लोक अधिकारियों को उनके पदों से महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। इसके लिए देशद्रोह/ विश्वासघात या अन्य उच्च स्तरीय आपराधिक मामलों में दंडित होने को आधार बनाया गया है। महाभियोग का उत्तरदायित्व और उसका प्राधिकार निम्न सदन के पास है। अनुच्छेद एक, धारा दो, खंड पांच यह प्रविधान करता है कि सभी प्रकार के महाभियोग की सुनवाई का अधिकार सीनेट (कांग्रेस का उच्च सदन) का होगा। यह भी कि किसी व्यक्ति को तब तक दंडित नहीं किया जाएगा जब तक सदन में उपस्थित सदस्यों के दो-तिहाई का समर्थन प्राप्त नहीं हो जाता।
जहां तक भारत की बात है, यहां महाभियोग शब्द का उल्लेख संविधान के अनुच्छेद 61 में है जिसमें राष्ट्रपति को पद से हटाने की प्रक्रिया उल्लिखित है। इस संबंध में एक संकल्प 14 दिनों की पूर्व लिखित सूचना देकर संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस पर उस सदन की कुल सदस्य संख्या के कम से कम एक-चौथाई सदस्यों का समर्थन अनिवार्य है। संसद के दूसरे सदन द्वारा आरोपों की जांच की जाएगी और संकल्प को दोनों सदनों में अलग-अलग उसकी कुल सदस्य संख्या के न्यूनतम दो-तिहाई बहुमत से पारित किया जाएगा।
उल्लेखनीय है कि संसदीय तंत्रों में दो प्रधानों का प्रविधान होता है। सांकेतिक या संवैधानिक (जैसे भारत में राष्ट्रपति व ब्रिटेन में सम्राट) और वास्तविक जैसे मंत्रिपरिषद।
ऐसी शासन व्यवस्थाओं में मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से संसद के लोकप्रिय सदन (भारत में लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होती है। दूसरी ओर, अमेरिका में उच्च सदन सीनेट को सुनवाई की अनन्य शक्ति दी गई है। इसके विपरीत, भारत के संविधान के अनुच्छेद एक में भारत राज्यों का संघ है। अत: यहां संसद के दोनों सदनों को महाभियोग के मामले में समान शक्तियां प्राप्त हैं।
अमेरिका में राष्ट्रपति सरकार का भी प्रधान है, अत: आपराधिक मामलों पर भी महाभियोग लगाया जा सकता है। यही कारण है कि वहां सुनवाई करने वाली बैठक की अध्यक्षता परिसंघीय न्यायालय (उच्चतम न्यायालय) के मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है। इसके विपरीत, भारत में संसदीय कार्यवाहियों में न्यायपालिका का हस्तक्षेप वर्जति है। सबसे बड़ा अंतर यह है कि अमेरिका में ऐसे संकल्प को पारित करने के लिए सदन में उपस्थित सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत चाहिए, लेकिन भारत में दोनों सदनों में अलग-अलग उनकी कुल सदस्य संख्या का न्यूनतम दो-तिहाई बहुमत अनिवार्य है। यह भारत के संसदीय तंत्र की सुदृढ़ता का उत्कृष्ट उदाहरण भी है।
महाभियोग की प्रक्रिया में अंतर दोनों देशों के राजनीतिक और शासकीय ढांचे में अंतर के कारण है। अमेरिका में चलने वाली प्रक्रिया के तहत सीनेट को दी गई अनन्य शक्ति उसके वास्तविक परिसंघ होने की पुष्टि करती है, जबकि भारत में चलने वाली प्रक्रिया इसके न केवल संसदीय तंत्र होने का प्रमाण है, बल्कि यह भी सिद्ध होता है कि भारत में संसद का गठन जनता के स्वतंत्र विचारों से हुआ है अर्थात यहां लोकप्रिय संप्रभुता पूर्ण रूप से सुदृढ़ है। अमेरिका में आपराधिक कृत्यों को महाभियोग का आधार बनाना यह प्रमाणित करता है कि वहां राष्ट्रपति वास्तविक प्रधान भी है। भारत में राष्ट्रपति के केवल संवैधानिक प्रधान होने के कारण उसके विरुद्ध ऐसे आरोप नहीं लगाए जा सकते। अनुच्छेद 361 में उसे कई विशेषाधिकार प्राप्त हैं। अत: उसके कार्यकाल के दौरान उसके विरुद्ध कोई आपराधिक मामला न्यायालय में दर्ज नहीं किया जा सकता।
भारत के संविधान में महाभियोग द्वारा राष्ट्रपति को पद से हटाने का प्रविधान अमेरिकी संविधान से भले प्रेरित है, पर दोनों देशों में इस प्रक्रिया में पर्याप्त भिन्नता है। जहां अमेरिका में संविधान के उल्लंघन के अतिरिक्त आपराधिक आधार पर भी महाभियोग का संकल्प लाया जा सकता है, भारत में केवल संविधान के उल्लंघन के आधार पर। कारण यह है कि अमेरिका में अध्यक्षात्मक या राष्ट्रपतिमूलक शासन तंत्र कार्यरत है जिसमें राष्ट्रपति संविधान और सरकार दोनों का प्रधान है। जबकि भारत के संसदीय तंत्र में राष्ट्रपति केवल संवैधानिक या सांकेतिक प्रधान है।