राक्षसत्व पर देवत्व की जीत का पर्व है-
विजयादशमी का पर्व प्राचीन समय से मनाया जाता रहा है। इस शुभ घड़ी से प्रभु राम की रावण पर विजय कथा ही नहीं, अर्जुन की एक विजय कथा भी जुड़ी है। हर कथा का सार अधर्म पर धर्म की विजय है। यही इसका सच्चा अर्थ भी है। मन के दुर्गुणों को परास्त करके मन में देवत्व की जागृति का शंखनाद करना, राम के स्वाभाविक गुणों की प्रतिष्ठा होना ही विजयादशमी है। इस दिन को रावण रूपी अधर्म पर राम रूपी धर्म की विजय के पर्व के रूप में मनाते हैं। कथा है कि इसी दिन श्रीरामचंद्र जी ने रावण को मारकर विजय प्राप्त की थी। परंतु कई अन्य लेखकों ने इस विषय पर खोज करके रावण-वध की तिथि वैशाख कृ ष्ण चतुर्दशी बतलाई है। कुछ लोग इसे फाल्गुन शुक्ल एकादशी भी बताते हैं। किंतु सभी एक स्वर से इस शुभ वेला को अधर्म पर धर्म की जीत का पर्व मानते हैं।
विजयादशमी के कई एक संदर्भ सामने आते हैं। जैसे, ‘भविष्योत्तर पुराण’ में विजय दशमी के दिन शत्रु का पुतला बनाकर उसके हृदय को वाण से बेधने का उल्लेख मिलता है। संभव है कि कालांतर में यह पुतला रावण का ही समझकर उसका संबंध रामलीला से जोड़ दिया गया हो। इस त्योहार के संबंध में कहा गया है कि आश्विन शुक्ल दशमी नक्षत्रों के उदय होने पर जो ‘विजय’ नामक काल होता है, वह सब कामनाओं को सिद्ध करने वाला होता है।

एक अन्य कथा के अनुसार जब दुर्योधन ने पांडवों को बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास दिया था, तो अज्ञातवास के समय अर्जुन अपने धनुष-वाण शमी के वृक्ष में छिपा कर विराट राजा के यहां नौकरी करने लगे थे। एक दिन विराट राजा का पुत्र उत्तर कुमार गायों की रक्षा के लिए कौरवों से लड़ने गया, तब शत्रुओं की प्रबल सेना देखकर उत्तर कुमार ने रणभूमि से भागने का उपक्रम किया, पर अर्जुन ने उसे रोककर अपने धनुष-वाण शमी के पेड़ से निकाले और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की। इस प्रकार विजयादशमी प्राचीन काल से अधर्म पर धर्म की, पशुता पर मानवता की, राक्षसत्व पर देवत्व की विजय का दिन है।
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