वापस आएगा दूरदर्शन का दौर, आवाज के जादूगर ‘शम्‍मी नारंग’ को है आज भी भरोसा

दूरदर्शन का यह दिल्‍ली केंद्र है, अब आप शम्‍मी नारंग से हिंदी में समाचार सुनिए …,’ इस जुमले को आज भी वे लोग नहीं भूल पाए होंगे जिन्‍होंने सत्‍तर और अस्‍सी के दशक में दूरदर्शन को जिया है। एक धीर-गंभीर आवाज, हिंदी का सशक्‍त उच्‍चारण और आवाज में खबरों के मुताबिक मॉड्यूलेशन, यह सब खासियतें हैं शम्‍मी नारंग की आवाज की। उनकी आवाज का ही जादू है कि दूरदर्शन छोड़ने के बाद उनकी आवाज दिल्‍ली मेट्रो सहित देश भर में ‘मेट्रो वॉइस’ बन गई। देश के पर्यटक स्‍थलों के इतिहास की जानकारी उनकी आवाज में दर्ज होती है। वे यूनीसेफ के साथ काम कर रहे हैं। ढेर सारे विज्ञापन और सामाजिक कार्यक्रमों में गूंजती है उनकी बेहतरीन आवाज। दूरदर्शन के सुनहरे काल को एंजॉय करने वाले शम्‍मी कहते हैं कि बहुत हुआ अब न्‍यूज चैनलों का रिया-सुशांत मामले पर अस्‍सी से ज्‍यादा दिन बिता देना, लोग उस दौर में लौटना चाहते हैं जहां वे सुकून से देश-समाज से जुड़ी विश्‍वसनीय खबरें देख सकें। दूरदर्शन के सुनहरे दौर का भरोसा जताते हुए वे अपने जीवन के सफर को कुछ यूं सुनाते हैं …

अस्सी का दशक सबसे सुनहरा था

मैं सबसे भाग्यशाली इंसान हूं कि मैंने दूरदर्शन के इन 61 सालों का वह हिस्सा एंजॉय किया है जो गोल्डन पीरियड कहलाता है। अस्‍सी के दशक में दूरदर्शन के कदम तेजी से बढ़ रहे थे। धीरे धीरे बच्चा जवान हो रहा था। मुझे गुमान है कि मेरी जवानी और दूरदर्शन की जवानी का दौर एक ही था। दूरदर्शन् की अपनी पहचान बन रही थी। दो चीजों में तब्दीली आई। इसका प्रसारण राष्ट्रीय हो चुका था। ब्लैक व्हाइट से कलर हो गया था। समाचार पढ़ने के हमारे अंदाज बदल गए थे। दूरदर्शन केवल दो-तीन लोगों पर निर्भर नहीं था। लोगों को अंगेजी और हिंदी में बेहतरीन तरीके से सामग्री परोसी गई। और फिर प्रांतीय भाषा के चैनल शुरू हुए। कहीं न कहीं बहुत खूबसूरती से प्रसारण का ताना-बाना अलग-अलग रंगों से बुना गया। अस्सी का यह दशक सबसे सुनहरा था।

हर घर के ड्राइंग रूम में थे हम

मैंने अपना पहला बुलेटिन 1982 में पढ़ा। मेरे सामने ही प्रसारण रंगीन हुआ। हमें कपड़े पहनने की तमीज आई। अब काली कमीज पर लाल रंग की टाई नहीं लगा सकते थे। फिर सबसे अच्छी बात हुई कि राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनी। लेकिन जहां तक समाचारों के विषय और प्रस्तुति की बात थी, उसकी गरिमा को हमने कभी नहीं गिरने दिया। बल्कि स्वादिष्ट खाना बेहतर थाली में परोसना शुरू हो गए हम और इसलिए आज के दौर में भी लोग उस दौर को याद करते हैं। हमारे पास आज जैसे संसाधन नहीं थे सब कुछ लाइव होता, कैमरे ऐनेलॉग थे फिर भी हम खुशकिस्मत लोग थे कि हम हर घर के ड्राइंग रूम रहते थे। सबसे अच्छी बात यह थी कि एक अस्सी साल का दादा अपनी चौदह साल की पोती के साथ बैठकर समाचार देख सकता था। बच्चों को समाचार देखने की हिदायत दी जाती थी। कहा जाता था कि अगर अपनी भाषा दुरुस्त रखना है या उसमें सुधार करना है, चाहे वह उच्चारण की बात हो या लहजे की बात हो, तो आप इन लोगों को सुनिए।

लोग हमें अपने परिवार की तरह समझते

हम जब भी समाचार पढ़ने या किसी और प्रस्तुति के लिए कैमरे के सामने आते थे तो यह नहीं सोचते थे कि प्रोग्राम कैसा गया बल्कि हमारे कंधों पर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती थी। हम सोचते थे कि एक शब्द के गलत उच्चारण से मैं कितने करोड़ स्कूल और कॉलेज के बच्चों के साथ ना इंसाफी होगी। इन बातों का खास खयाल रखा गया इसलिए उस दौर को सुनहरा कहा गया। उस दौर में दूरदर्शन को परिवार का चैनल कहा गया। इसने प्रमाणित भी किया कि यह पूरे परिवार के लिए है। धारावाहिक बने, उन्होंने भी कोई न कोई संदेश दिया। उन्हें अमल में लाना अलग बात है लेकिन परोसा बहुत अच्छा गया। सबसे अच्छी बात थी कि परिवार को लगता था कि जो स्क्रीन पर आ रहा है वह कोई परीलोक का आदमी नहीं है, हमारे जैसा ही इंसान है। लोग जुड़़ते थे। सोचते कि मेरी बेटा या बेटी ऐसी हो। लोग हमें अपने परिवार की तरह समझते थे। एक शालीनता थी।

टीवी जगत की मधुबाला हैं सलमा जी

उस समय सलमा जी का बहुत क्रेज था। जब मैं दसवीं में था तो हमें स्कूल से दूरदर्शन ले गए। जब लौट कर आया तो मां को बताया। वे छूटते हीं बोलीं, सलमा जी को देखा? उनको क्या पता था कि उनका अपना बेटा अधिकतर समाचार सलमा जी के साथ बैठ कर पढ़ेगा। लोगों को लगता कि वे परी लोक की अप्सरा हैं। उनका इतना खूबसूरत होना, बालों में फूल लगाना लोगों को बहुत पसंद आता लेकिन उनकी गरिमा और शालीनता भी आपने देखी होगी। धीरे से बोलना, कहीं कोई चिल्लाहट नहीं। मैं नया-नया गया तो बहुत डर रहा था उनके साथ बुलेटिन कैसे पढ़ूंगा? लेकिन उन्होंने बड़ी बहन की तरह मुझे समझाया और प्यार दिया। फिर हम परिवार बन गए। वे उस समय के टीवी जगत की मधुबाला मानी जाएंगी। मैं जहां भी शिष्ट अतिथि के तौर पर जाता लोग सलमा जी के बारे में पूछते। बाकी साथी भी काफी लोकप्रिय थे। गीतांजलि से लड़कियां पूछतीं कि आप प्लीज बता दो कि बाल कहां से कटाती हैं। वह हंसती कि मेरे घर के बाहर एक छोटा सा पार्लर है उससे कटाती हूं। अगर कह दिया तो मेरी वैल्यू गिर जाएगी। वह दौर बहुत खूबसूरत था। अगर हम किसी शब्द का उच्चारण करने में कठिनाई महसूस करते तो सहयोगी टीम पूरी मेहनत करके उस शब्द को बदल देते। शिद्दत थी काम की और प्यार की।

मुहब्‍बत का संदेशा आता खतों के जरिए

उस समय कोई मोबाइल फोन नहीं थे। एक लैडलाइन होता था जो ड्यूटी रूम में होता। जिसके लिए खास हिदायत थी कि कोई भी वह नंबर किसी को नहीं देगा। ऐसे में खत ही माध्यम थे। हमारे खत एक खांचेनुमा हमारे पिजियन बॉक्सेज में रख दिए जाते। पोस्टकार्ड और इनलैंड लैटर आते। उनमें कभी कोई आलोचना नहीं होती थी। हां, हम जवान और मशहूर थे। कई लड़कियां खत में लिखतीं कि मैं आपसे मुहब्बत करती हूं तो कोई लिखता कि क्या मैं अपने माता-पिता को आपके घर रिश्ते की बात करने भेज सकती हूं। मैं जवाब भी नहीं दे सकता था कि मैं शादीशुदा आदमी हूं। बहुत ज्यादा खत आते थे। इन्हें मैं बीवी को भी पढ़ाता था। जो महिलाएं होतीं उनसे पूछा जाता कि आपने इतनी खूबसूरत साड़ी पहनी है, कहां से खरीदी। हम हंसते भी क्योंकि कभी-कभी टॉप पहनने वाली एंकर ने दुपट्टे को खूबसूरत तरीके से साड़ी बना कर पहना होता और उसकी खूब तारीफ आती। छोटी-छोटी खुशियां थीं। प्रतिस्पर्द्धा खुद से थी। बहुत अच्छा समय था। पैसे के पीछे भागने वाला हिसाब नहीं था। छोटे से कागज के कप में कॉफी मिलती थी। कैमरामैन, फ्लोर मैनेजर, तकनीकी टीम सभी एक परिवार की तरह थे। मेकअप रूम में बैठने के लिए आधे घंटे पहले चले जाते थे।

यूं बना हिंदी का समाचार वाचक

मेरी हिंदी आठवीं कक्षा में छूट गई थी क्योंकि मैं साइंस का स्टूडेंट था। इंजीनियरिंग में जाने के बाद तो बिल्कुल ही हिंदी छूट गई। लेकिन कॉलेज में ‘वॉइस ऑफ अमेरिका’ ने मुझे कुछ बोलते हुए सुन लिया था और मुझे दिल्ली के अपने दफ्तर में बुलाया और अमेरिका में हिंदी प्रसारण के लिए छोटी-छोटी रिपोर्ट पढ़ने के लिए कहा। पहले तो मुझे मुश्किल लगा लेकिन वहां पर हिंदी प्रमुख शास्त्री जी थे। उन्होंने पहला ऑडीशन सुना तो गले की तारीफ की और कहा कि छोटी-छोटी त्रुटियों को ठीक करवा देंगे। उन्होंने कई गुर सिखाए। लेकिन शब्दों के मॉड्यूलेशन का गुण मेरा जन्मजात था। घरवाले कहते कि जब मैं स्कूल में सामान्य बात भी करता तो लोग कहते कि तुमसे बात करके अच्छा लगता है। फिर आगे बढ़ता गया। एक दिन टेक्सला टीवी ने गुरबानी में एक कार्यक्रम बनाया जो बहुत ज्यादा लोकप्रिय हुआ। इस आधे घंटे के प्रोग्राम में गुरबानी सुनाई जाती थी। उसमें गुरबानी का सार बताने का काम मेरे जिम्मे आया। मैं पंजाबी हूं तो पंजाबी बहुत अच्छी बोल सकता था। लेकिन मैंने अपनी जिंदगी में सीखने में कभी कोई शर्म नहीं की। उस प्रोग्राम बनाने वाले प्रोड्यूसर को दूरदर्शन ने विजुअल भी बनाने के लिए बोला। दूरदर्शन के कैमरामैन आते तो मैं एंकरिंग करता। उन्‍होंने कहा कि आप बहुत अच्छा बोल रहे हैं आप हमारी न्यूज के लिए ऑडीशन दो। फॉर्म भरो। मैंने कहा भाई मैं कहां कर पाऊंगा? उसने कहा कि यार, बीस रूपए का सवाल है। क्योंकि बीस रूपए का पेऑर्डर फॉर्म के साथ लगना था। उसी कैमरामैन ने फॉर्म भरा और मुझे साइन करने को कहा। वहां से शुरुआत हुई। दस हजार आवेदन में से पहले तीन सौ शॉर्टलिस्ट किए गए। लिखित परीक्षा और ऑडीशन मैंने क्लियर कर लिया। आखिर मैं कैमरा टेस्ट था, मैंने नहीं जाने की ठान ली थी क्योंकि वहां बहुत खूबसूरत लोग आ रहे थे। वे कपड़े अच्छे पहनते थे। मेरी तो जिंदगी जींस में ही निकल रही थी। बुलट का स्टटंट राइडर होने वाला इंसान क्या कर लेगा? जब नहीं जा रहा था तो पिता ने कहा कि तुम चले जाओ, कम से कम घर तो आने देंगे। पिता सेना में थे और फौजी का नजरिया कुछ कर जाने का होता है। इस टेस्ट के लिए 25 लोग रह गए थे। मेरा नाम 24वां था और 25वां आया नहीं था। मैंने सोच लिया था कि अब तक निर्णायक मंडल थक गया होगा। लेकिन मैं सलेक्ट हुआ। इसके बाद मैंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। बस वही जिंदगी का मोड़ था मेरे लिए। इसके बाद परमानेंट होने का ऑफर था लेकिन उसे मैंने नहीं लिया क्योंकि मेरी आवाज का काम बहुत अच्छा चल रहा था। मुझे बहुत ज्‍यादा बुलाया जाने लगा। पैसे तो खास नहीं मिलते थे लेकिन शोहरत मिली, लोगों का प्यार मिला।

‘मेट्रो वॉइस’ अमर रहेगी

2001 में रिटायरमेंट की फीलिंग आई तो ईश्वर का शुक्रिया अदा किया। लेकिन ईश्वर मेरी शोहरत को जाने नहीं देना चाहते थे। फिर उन्होंने ऐसी चीज मेरी थाली में परोस दी जिसे मेरे बच्चें के बच्चों के बच्चे भी सुनेंगे। वह थी मेट्रो वॉइस। जब तक राजीव चौक का नाम राजीव चौक रहेगा, मेट्रो रहेगी तब तक मेरी आवाज रहेगी। मेरे बच्‍चों के बच्‍चों के बच्‍चे सुनेंगे। यह मेरा सफर रहा। फिल्ममेकिंग सीखी। फिल्में डायरेक्ट की। एंटरटेनमेंट का कोई खांचा छूटा नहीं। कॉमर्शियल किए। सुल्तान और मकबूल जैसी फिल्में कीं। मुझे हमेशा प्यार से बुलाया गया। लॉकडाउन में दूरदर्शन ने रामयण दिखा कर सबका मन मोहा लेकिन दूरदर्शन अगर असुरक्षित महसूस न करे। प्रतियोगिता में न पड़े। अपना स्तर बनाए रखे तो लोग लौट कर आएंगे। वे उस दौर में आना चाहते हैं। थक गए हैं यह सुनकर कि रिया कौनसी गाड़ी में बैठेगी, उसे कहां ले जाया जाएगा, यह सब बहुत हो गया। यह सब डिप्रेशन दे रहा है। माध्यम का मकसद किसी को दुखी करना नहीं होना चाहिए। दूरदर्शन अच्छा बताए। रचनात्मक और सकारात्मक माहौल पैदा करे। इससे बहुत उम्मीदें हैं और मुझे भरोसा है कि वह दौर लौट आएगा।

सिर्फ रिया और सुशांत की फिक्र है आज के चैनल्‍स को

मैं आज के चैनल्स की मुखालफत नहीं कर रहा लेकिन आज सर्वे कीजिए तो शहरों में तीस साल का बच्चा अब समाचार नहीं देखना चाहता। उसके पास और भी कई विकल्प है। उसके पास नेटफ्लिक्स है, ओटीटी प्लेटफॉर्म्‍स हैं, स्पोर्ट्स हैं, डिस्कवरी है। समाचारों में लोगों को साथ बिठाने का चुम्बकीय आकर्षण पैदा ही नहीं कर पा रहे हैं चैनल्स । गालिब ने कहा है कि और भी गम है जमाने में। अस्सी से ज्यादा दिन होने पर भी यह सुशांत से हटे ही नहीं। न इन्‍हें सीमा की फिक्र है और न ही कोविड की। इन्‍हें फिक्र है तो बस यही कि रिया और सुशांत के साथ क्या हुआ। वास्‍तव में जो भी हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन एजेंसियों को अपना काम करने दिया जाना चाहिए। हद है कि अदालतों की जगह मीडिया चैनल्‍स ही फैसला सुना दे रहे हैं। मुझे लगता है कि उनकी भी अपनी मजबूरियां है।

भड़काऊ सच नहीं दिखाया पर्दे पर

दूरदर्शन आज भी पूरी गरिमा के साथ समाचारों का प्रसारण कर रहा है। मुझसे कभी किसी न पूछा था कि आप भी झूठ बोलते हैं तो मैंने कहा कि नहीं हम झूठ नहीं बोलते, हां, कभी-कभी सच छुपा लेते हैं। मुझे लगता है जिस सच से लोगों की प्रतिक्रियाएं भड़काऊ हो जाएं, जिससे समाज और देश को नुकसान होने की संभावना है उसे छुपा लो। अगर कहीं दंगे हुए हैं जिन्हें सरकार या प्रशासन ने संभाल लिया है तो उसे हम चाट-मसाला लगा कर क्यों परोसें? दूरदर्शन ने ऐसा कभी नहीं किया। बहुत कुछ सीखने को मिला यहां। अनुशासन, संवेदनाएं और स्पदंन सीखे। हम भूलकर भी गलती नहीं करते थे कि लोग क्या कहेंगे। अब तो हाल यह है कि लोग कुछ भी कहें मैं तो बोलूंगा। आप बोलिए लेकिन कुछ सकारात्मक भी तो कीजिए। आज मैं घर में मास्क लगा कर बैठ कर वैक्सीन की खबर का इंतजार करता हूं? मुझे रिया के काली शर्ट पहनने या कंगना को सुरक्षा मिलने से क्या मतलब है। इससे देश और समाज का क्या भला होने वाला है? जो वॉरियर्स दिन रात लगे हैं उनकी चिंता कीजिए। चैनल सामाजिक दूरी के विज्ञापन दे रहे हैं लेकिन उनके रिपोर्टर इसकी कोई परवाह नहीं करते। हमने यह सब नहीं किया। हमने जिंदगी का सर्वश्रेष्ठ समय देख लिया है अब फिक्र कल की है।

 

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