लोकसभा चुनाव 2019 के मद्देनजर पंजाब में राजनीतिक हालातों पर नजर डालें तो शिअद और आप की अंदरुनी फूट के चलते नए गठबंधन बने, जो चुनावी दंगल में बराबर की टक्कर देने को उतर आए हैं। पंजाब में मुख्य विपक्षी दलों के टूटने के बाद सत्ताधारी कांग्रेस खुद को मजबूत करने में जुट गई है।
पार्टी ने मान लिया है कि इस बार लोकसभा चुनाव में उसके सामने कोई चुनौती नहीं है। प्रदेश के मुख्य विपक्षी दल आम आदमी पार्टी से अलग हुए विधायकों ने पंजाब एकता पार्टी (पीईपी) बना ली है, जबकि दस साल तक भाजपा के साथ गठबंधन में शासन कर चुका शिरोमणि अकाली दल (शिअद) भी टूट का शिकार हो गया है। शिअद से अलग हुए अकाली नेताओं ने शिअद (टकसाली) का गठन कर लिया है।
अब कांग्रेस यह मान रही है कि विपक्षी दलों के टूटने से बिखरा उनका वोट बैंक कांग्रेस को फायदा देगा, लेकिन यह इतना आसान भी नहीं है। पीईपी ने बसपा और सीपीआई समेत पांच अन्य छोटे दलों को जोड़कर पंजाब डेमोक्रेटिक अलायंस (पीडीए) का गठन कर लिया है, जबकि शिअद (टकसाली) और आम आदमी पार्टी के बीच समझौते के लिए बातचीत जारी है।
दोनों के बीच प्रदेश की 12 सीटों पर समझौता होने के आसार है, जबकि आनंदपुर साहिब सीट पर दोनों ने अपने-अपने प्रत्याशी उतार दिए हैं। दूसरी ओर, भाजपा के लिए पसोपेश की स्थिति है। भाजपा बीते वर्ष उपचुनाव में गुरदासपुर लोकसभा सीट गंवा चुकी है। अमृतसर की सीट उसने 2014 में ही खो दी थी और अब केवल होशियारपुर की सीट पर उसका कब्जा है। पार्टी की प्रदेश इकाई की हालत भी काफी खराब है। पार्टी मौजूदा और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष समर्थकों के बीच बंटकर रह गई है।
विकास और राष्ट्रवाद से बड़ा हुआ धर्म का मुद्दा
पंजाब में इस बार चुनाव के लिए जनकल्याण और विकास जैसे मुद्दे पीछे छूट चुके हैं। पुलवामा हमला और पाकिस्तान पर एयर स्ट्राइक भी मुद्दा नहीं हैं। पवित्र ग्रंथ की बेअदबी और 2015 में बहिबलकलां व कोटकपूरा में सिखों पर पुलिस फायरिंग के मामले पर प्रदेश में सियासत चल रही है। इस मामले में तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, गृह मंत्री सुखबीर सिंह बादल और तत्कालीन डीजीपी पर उंगली उठी।
यही इस बार चुनाव में मुद्दा रहेगा। हालांकि सत्ताधारी कांग्रेस अपने दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिनाएगी, लेकिन उसका भी सारा जोर उक्त मामलों के सहारे अकाली दल पर दबाव बढ़ाने पर रहेगा। आप की ओर से प्रदेश में बिजली के दाम, नशा, कानून-व्यवस्था के मुद्दे उठाए जाएंगे, लेकिन धर्म से जुड़ा उक्त मामला आम लोगों का ध्यान खींच रहा है।
पांच हॉट सीटों पर सभी की निगाहें
प्रदेश की तेरह लोकसभा सीटों में इस बार पांच हॉट सीटें हैं, जहां चुनावी मुकाबले पर सबकी नजरें टिकी रहेंगी। पटियाला सीट से कांग्रेस की परनीत कौर को अकाली दल के अलावा पीडीए में शामिल मौजूदा आप सांसद धर्मवीर गांधी चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं। यह सीट मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का होम टाउन है।
बठिंडा सीट से अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल के खिलाफ कांग्रेस के अलावा पीडीए भी सशक्त प्रत्याशी उतारने की रणनीति बना रही है। तीसरी हॉट सीट गुरदासपुर की है, जहां कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष सुनील जाखड़ को भाजपा से चुनौती मिलेगी।
चौथी हॉट सीट गुरु नगरी अमृतसर है, जहां 2014 में कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के अरुण जेटली से जीते थे। इस बार जेटली इस सीट से चुनाव नहीं लड़ रहे, लेकिन कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस अहम सीट को कब्जाने की जी तोड़ कोशिश करेंगे।
पांचवीं हॉट सीट संगरूर है, जहां से आप के भगवंत मान सांसद हैं और वे अपनी सीट बचाने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे हैं।
अहम भूमिका निभाते हैं 9000 डेरे, लाखों अनुयायी
पंजाब की सियासत का सारा गणित यहां बने हजारों धार्मिक डेरों और उनके अनुयायियों के रुख पर टिका रहता है। इनमें प्रमुख हैं – डेरा सच्चा सौदा, डेरा भनियारांवाले बाबा, राधा स्वामी डेरा, निरंकारी, नूरमहल स्थित डेरा दिव्य ज्योति जागृति संस्थान और रूमीवाला डेरा। इन डेरों के अनुयायियों की संख्या भी लाखों में है। 1998 से 2014 तक पंजाब में लोकसभा और विधानसभा चुनाव में डेरा सच्चा सौदा अकाली-भाजपा गठबंधन का समर्थन करता रहा है, जिससे इस गठबंधन को हमेशा लाभ हुआ। लेकिन इस बार डेरा प्रमुख के जेल जाने से इस डेरे के अनुयायिओं में अकाली-भाजपा गठबंधन के प्रति नाराजगी है।
पंजाब में डेरों का कोई आधिकारिक आंकड़ा तो मौजूद नहीं है, फिर भी माना जाता है कि प्रदेश में कुछ मिलाकर छोटे-बड़े करीब 9000 डेरे हैं। इनमें सबसे बड़ा डेरा राधा स्वामी सत्संग ब्यास है, जिसके अनुयायिओं की संख्या प्रदेश में डेरा सच्चा सौदा के अनुयायिओं के ज्यादा है। फिर भी, डेरा सच्चा सौदा का मालवा क्षेत्र में तो डेरा ब्यास का माझा क्षेत्र में प्रभाव है। वैसे, डेरा सच्चा सौदा द्वारा राजनीति में जितना दखल दिया जाता है, उसके उलट राधा स्वामी सत्संग ब्यास का राजनीति में दखल नहीं है। इस डेरे के प्रमुख कभी राजनीति में शामिल नहीं हुए।
प्रदेश में निरंकारी समुदाय भी बड़ा है। इसके प्रमुख भी कभी राजनीति में सार्वजनिक तौर पर शामिल नहीं हुए। हालांकि इन दोनों डेरों में प्रत्येक चुनाव के दौरान सियासी नेता आशीर्वाद लेने जरूर पहुंचते हैं। दोआबा में नूरमहल स्थित दिव्य ज्योति जागृति संस्थान का अच्छा प्रभाव रहा है, जबकि नकोदर में ही बाबा मुरादशाह, कपूरथला में डेरा बेगोवाल, मस्तराम जी जटाणा डेरों का आम लोगों में व्यापक प्रभाव है। बठिंडा में डेरा रूमी वालों का खासा प्रभाव है और कैप्टन अमरिंदर सिंह भी इस डेरे में आशीर्वाद लेने हमेशा जाते रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान भी कैप्टन अमरिंदर सिंह इस डेरे में गए थे।
राजनीतिक दलों के पास हैं अपने-अपने मुद्दे
कांग्रेस: सत्ताधारी दल होने के कारण पार्टी को जनता से किए वादे और विकास कार्यों का हिसाब पेश करना है। पार्टी की समस्या उसका 2016 का विधानसभा चुनाव मेनिफेस्टो है, जिसमें किए अनेक वादे बीते दो साल में पूरे नहीं हो सके हैं। विपक्षी दल हर बार कांग्रेस को उनका मेनिफेस्टो दिखाकर घेरते रहे हैं। लोकसभा चुनाव में भी यही मेनिफेस्टो कांग्रेस के आड़े आएगा। लोकसभा चुनाव में विपक्षी वादा खिलाफी का मुद्दा अवश्य उठाएंगे। लेकिन कांग्रेस इस बार धर्म के मुद्दे पर चुनाव लड़ती दिखाई दे रही है। पवित्र ग्रंथों की बेअदबी और बहिबल कलां व कोटकपुरा में धरना दे रहे सिखों पर पुलिस फायरिंग में बादल पिता-पुत्र पर उंगली उठने के बाद कांग्रेस इसे ही मुख्य मुद्दा बनाएगी।
शिअद: शिरोमणि अकाली दल (शिअद) काफी दबाव में है। पार्टी टूट चुकी है और बहिबल कलां व कोटकपुरा फायरिंग मामले में बादल पिता-पुत्र घिर गए हैं। इस मामले ने सिख समुदाय को खासा नाराज कर दिया है। बीते साल कई जगह तो सुखबीर बादल और हरसिमरत बादल को आम लोगों के विरोध का सामना भी करना पड़ा है। बादल पिता-पुत्र पर लगे इन आरोपों के चलते ही सीनियर नेता सांसद रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा, पूर्व मंत्री रतन सिंह अजनाला और पूर्व मंत्री सेवा सिंह पार्टी छोड़ गए हैं। सांसद शेर सिंह घुबाया ने भी पार्टी छोड़कर कांग्रेस ज्वॉइन कर ली है। इसी दौरान पार्टी नशे के मुद्दे पर भी अपने पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया का नाम बार-बार उछलने से काफी दबाव में है। वैसे पार्टी लोकसभा चुनाव में कैप्टन सरकार पर तानाशाही शासन करने और नवजोत सिद्धू के पाक सेना प्रमुख से गले मिलने की घटना को मुद्दा बनाएगी।
आम आदमी पार्टी: दिल्ली से बाहर पंजाब में 2014 के लोकसभा चुनाव में 4 और 2017 के विधानसभा चुनाव में 25 सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी इस बार घोर संकट में है। उसके एक सांसद भगवंत मान को छोड़कर बाकी तीनों सांसद बागी हो चुके हैं। पार्टी को बसपा और सीपीआई से सजे पीडीए से ज्यादा खतरा है, लेकिन इन चुनाव में पार्टी को डेरा सच्चा सौदा अनुयायिओं का समर्थन मिल सकता है।
भाजपा: 2016 के विधानसभा चुनाव में अकाली-भाजपा गठबंधन की करारी हार के बाद पंजाब में भाजपा की स्थिति डांवाडोल दिखाई दे रही है। पार्टी के पास न तो कोई सशक्त उम्मीदवार है और न ही जनता को रिझाने के लिए को बड़ा मुद्दा। पार्टी लोकसभा चुनाव में करतारपुर कोरिडोर का श्रेय मोदी सरकार को देते हुए जनता के बीच पार्टी की उपलब्धियां ही गिनाएगी। इसके अलावा 1984 के दंगों में पूर्व कांग्रसी नेता सज्जन कुमार को सजा होने का पूरा श्रेय भी मोदी सरकार की झोली में डालने की कोशिश होगी।
सबका खेल बिगाड़ेंगे जाति और धर्म
पंजाब में धर्म के आधार पर भले ही सिख (57.68 फीसदी) और हिंदू (38.48 फीसदी) सबसे अधिक हैं, लेकिन जातिगत आधार पर दलित वोटरों की कुल संख्या 88.6 लाख है, जो पूरे राज्य की कुल आबादी का 31.9 फीसदी है। इस दलित आबादी में से 45 फीसदी दो लोकसभा सीटों वाले दोआबा क्षेत्र में बसती है, जहां पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में आप ने अच्छी पकड़ बनाई थी, लेकिन ऐन वक्त पर डेरा सच्चा सौदा के शिअद-भाजपा गठबंधन को समर्थन के एलान से आप के हाथ आए वोट खिसक गए थे।
बाकी दलित आबादी का बड़ा हिस्सा मालवा क्षेत्र में है। इस बार बसपा के सहारे पीडीए दोआबा में अन्य दलों के दलित वोट बैंक में सेंध लगा सकता है। इसी तरह पीडीए का लक्ष्य मालवा के दलित वोटर भी रहेंगे। पंजाब में दलितों की 37 उप-जातियां हैं। वर्ष 2011 के जनसंख्या के आंकड़ों के अनुसार, राज्य में 32 फीसदी ओबीसी, 31.94 फीसदी अनुसूचित जाति, 41 फीसदी ऊंची जातियां और 3.8 फीसदी अन्य जातियों के लोग हैं। धर्म के लिहाज से मुस्लिम आबादी 1.93 फीसदी, ईसाई 1.20 फीसदी, बौद्ध 0.17 फीसदी, जैन 0.16 फीसदी और अन्य 0.04 फीसदी हैं।
2014 लोकसभा चुनाव में पार्टियों की यह रही स्थिति
1999 और 2009 के लोकसभा चुनाव में आठ-आठ सीटें जीतने वाली कांग्रेस 2014 में केवल तीन सीटें ही जीत सकी थी। उसे पंजाब में आम आदमी पार्टी की एंट्री और डेरा सच्चा सौदा के अनुयायिओं के शिअद-भाजपा के साथ चले जाने का खामियाजा भुगतना पड़ा था। 2014 में शिअद ने चार और भाजपा ने दो सीटें जीती थीं, जबकि चार सीटों पर आम आदमी पार्टी ने जीत दर्ज करते हुए दिल्ली से बाहर खाता खोला था। इस तरह 2014 के लोकसभा चुनाव प्रदेश में सभी दलों के लिए मिश्रित परिणाम वाले रहे थे। तब, सर्वाधिक दलित वोट बैंक वाले इस प्रदेश में बसपा का ग्राफ भी गिरकर 1.9 फीसदी रह गया था। जबकि 1999 में बसपा ने राज्य में 9 सीटें जीती थी और उसका वोट प्रतिशत 16 था।
पंजाब लोकसभा चुनाव
कुल सीट : 13
कुल मतदाता : 1,97,49,964
पुरुष मतदाता : 1,04,40,310
महिला मतदाता : 93,09,274
थर्ड जेंडर : 380
एनआरआई मतदाता : 281