मारे देश में कबाब अधिकतर बकरे के मांस से ही बनाए जाते हैं। वह चाहे शामी हो या सींक। टिक्कों की बात दीगर है, जिनकी दुनिया में मुर्ग और मछली का बोलबाला है। यूं तो तरह-तरह के मुर्ग के कबाब बनाने का रिवाज नया नहीं है। रेशमी कबाब नाम मुर्ग के कीमे से बने सींक कबाब को दिया जाता है। प्रसिद्ध गजल गायिका बेगम अख्तर ने एक बार अपने प्रशंसक कश्मीर नरेश हरि सिंह की खातिरदारी ‘मुर्ग शिकस्ता कबाब’ से की थी, जिसके बाद से यह हरिपसंद नाम से जाना जाने लगा। इसका उल्लेख महाराजा सैलाना ने अपनी राजसी व्यंजन विधि पुस्तक में भी किया है।
लखनऊ के आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के नाम पर मुर्ग के सीने का केसरिया पुट लिए भरवां कबाब अवध के कुछ नफीस कारीगर बनाते हैं, जिसे शिकस्ता का पुरखा समझा जा सकता है। गाढ़े दही के साथ पिस्ते, किशमिश और बादाम की कतरनें इनकी रौनक बढ़ाती है।
लखनऊ में ही मुर्ग के ‘पारचे’ चखने को मिलते हैं, जो मुर्ग के सीने के हड्डी रहित भाग से बनाए जाते हैं और जिनकी तुलना दिल्ली के पसंदों से की जा सकती है। यह कहीं ‘ताश कबाब’ के रूप में भी दिख जाते हैं। हल्द्वानी में बस स्टेशन के नजदीक शमा नाम के होटल में चिकन के शामी पेश किए जाते हैं, जो सेंके कम तले ज्यादा महसूस होते हैं।
हालांकि जो रेडीमेड चिकन टिकिया कुछ बहुराष्ट्रीय कंपनियां हिंदुस्तानी जुबान पर कब्जा करने के लिए बाजार में उतार रही हैं, उनकी तुलना में ये बेहतर नजर आते हैं। ऊपर जितने कबाबों का जिक्र किया गया है, उनमें किसी को भी मुर्ग मलाई कबाब के नाम से नहीं नवाजा जा सकता।
मलाइयत का दावेदार, तो मुर्ग मलाई टिक्का ही कर सकता है। कई कबाबिये अपनी पेशकश को नयापन देने की होड़ में अजीबोगरीब नाम दे देते हैं, जैसे- चिकन अफगानी, चंगेजी, नूरजहांनी या मुमताजमहल। किसी भी नाम का दीर्घकालीन रिश्ता किसी ऐतिहासिक व्यक्ति या व्यंजन से नहीं होता। वहीं, कुछ-कुछ चीनी रेस्तरां में सिर्फ भारत में बिकने वाले चिकन मंचूरियन सरीखा है!
यहां इस बात की ओर ध्यान दिलाने की जरूरत है कि मलाई विशेषण इस बात का द्योतक नहीं कि कीमे में मलाई या क्रीम मिलाया गया है। इसका अभिप्राय है कि यह कबाब दूसरे कबाबों से कहीं अधिक मुंह में रखते ही घुलने वाला है। यूं गलावट के कबाब बनाने वाले यह कभी कबूल नहीं करेंगे कि गलौटी या काकोरी का मुकाबला मलाइयत में कोई मुर्ग कबाब कर सकता है।
तंदूर में भूने जाने वाले कबाब अकसर खुश्क हो जाते हैं। अगर मुर्ग की बोटियों को माही तवे पर मंदी आंच पर तीन-चार घंटे की गलावट के बाद पकाया जाए, तब वह नरम भी रहते हैं और मसाला भी अंदर तक रच-बस जाता है। मुर्ग मलाई कबाब सींक की शक्ल में हो या शामी की, टिक्के या बोटी के कलेवर में हमारी तश्तरी में पेश किया जाए, वह अपना नाम तभी सार्थक कर सकता है, जब उस पर तीखे चटपटे चाट मसाले की परत न चढ़ी हो और न ही उसे जरूरत से ज्यादा आग से झुलसा कर सुखा दिया हो।
-लखनऊ में ही मुर्ग के ‘पारचे’ चखने को मिलते हैं, जो मुर्ग के सीने के हड्डी रहित भाग से बनाए जाते हैं ।
-मलाइयत का दावेदार तो मुर्ग मलाई टिक्का ही कर सकता है।
बेगम अख्तर ने एक बार एक प्रशंसक की खातिरदारी मुर्ग शिकस्ता कबाब से की थी।
शिकस्ता का पुरखा समझा जाने वाला मुर्ग भरवां कबाब लखनऊ के नवाब वाजिद अली के नाम पर बनता है।
तीखा, रसदार मलाई से सराबोर मुर्ग मलाई कबाब को मलाई मुर्ग बोटी के नाम से भी जाना जाता है।