मुंशी प्रेमचंद गांधी और प्रेमचंद का साथ-साथ चलना हिंदी साहित्य में एक महान उपलब्धि

प्रेमचंद गांधी के साथ-साथ चल रहे हैं-लेख में, पत्र में, उपन्यास में और कहानी में भी। गांधी जी के स्वराज्य आंदोलनों, घटनाक्रमों तथा विचारों ने उनकी अनेक कहानियों की आधारभूमि तैयार की है। प्रेमचंद हिंदी के एकमात्र ऐसे कहानीकार हैं जिनकी लगभग 25 कहानियां प्रत्यक्षत: गांधी-दर्शन एवं गांधी-आंदोलनों आदि पर मिलती हैं और वे 1921 से उनके अंतिम समय तक मिलती हैं। इन कहानियों में गांधी-संघर्ष एवं गांधीवाद की जीवंत अनुभूतियां हैं जो एक प्रकार से प्रेमचंद को गांधीवाद का साहित्यिक संस्करण बना देती है।

राष्ट्र-विचार एवं साहित्य का संगम:  गांधी जी अपने स्वराज्य आंदोलनों से जनता में स्वाधीनता एवं रामराज्य की महत् चेतना उत्पन्न कर रहे थे और प्रेमचंद उसमें तात्कालिक वास्तविक अनुभूतियों और संवेदनाओं से पूर्ण कथासूत्र पिरोकर अपने पाठकों को इस महायुद्ध के लिए तैयार कर रहे थे। जब राष्ट्रनायक और राष्ट्रलेखक एक साथ जुड़ते हैं तो मानो राम और तुलसीदास मिलकर ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना करते हैं और जब गांधी और प्रेमचंद में एकत्व होता है तो ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गोदान’, आदि उपन्यासों और ‘लाल फीता’, ‘सुहाग की साड़ी’, ‘स्वत्व-रक्षा’, ‘मंदिर और मस्जिद’, ‘इस्तीफा’, ‘जुलूस’, ‘समर-यात्रा’, ‘जेल’, ‘आखिरी हीरा’, ‘कातिल’, ‘रहस्य’, आदि कहानियां पाठक के मन में दासता से मुक्ति और स्वराज्य की प्राप्ति का महाभाव उत्पन्न करती हैं। इस प्रकार जब राष्ट्र-विचार एवं साहित्य का संगम होता है तो राष्ट्र का मंगल होने से कौन रोक सकता है।

गांधी जी के जन्म की 150वीं वर्षगांठ पर अनेक दृष्टियों से विचार हुआ है और वह क्रम अभी चल रहा है। अत: प्रेमचंद के जन्म-दिवस पर गांधी जी के साथ उनके संबंधों को देखना प्रासंगिक होगा कि गांधी-युग का एक महान हिंदी लेखक किस प्रकार तथा किन रूपों में गांधी के साथ-साथ चल रहा था। बीसवीं शताब्दी के आरंभिक पांच दशकों तक गांधी जी भारत के एक एकमात्र ऐसे महानायक थे जिन्होंने अपने विचार-दर्शन तथा कार्यक्रमों से एक ऐसी हलचल उत्पन्न की जिसके कारण टैगोर, टाल्स्टाय, बर्नार्ड शॉ, अल्बर्ट आइंस्टीन जैसी महान प्रतिभाओं ने भी उनकी विशिष्टता को स्वीकार किया। भारत में उस समय ब्रिटिश दासता के विरुद्ध तथा स्वाधीनता के लिए सर्वत्र लोकमानस में जागृति आ रही थी और उससे लेखक-समाज तथा पत्रकारिता भी प्रभावित हो रहे थे। प्रेमचंद के कहानी-संग्रह ‘सोजे वतन’ (1908) में इस देशप्रेम की अनुगूंज सुनाई पड़ती है और गांधी जी के जनवरी, 1915 में भारत स्थायी रूप से आने के बाद उन पर सन् 1916 में प्रकाशित पुस्तक ‘कर्मवीर गांधी’ की भूमिका में वे गांधी जी का अभिनंदन करते हुए लिखते हैं कि भारत में महात्मा गांधी के पदार्पण से हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक अद्भुत स्फूर्ति, सजीवता एवं व्यावहारिक उद्योग का विकास हुआ है।

प्रेमचंद ने गांधी जी का साक्षात् दर्शन असहयोग आंदोलन के दौरान 8 फरवरी, 1921 को गोरखपुर के गाजी मियां के मैदान में किया था जब वे असहयोग के लिए उपस्थित लाखों की भीड़ को सरकारी नौकरी, कॉलेज, विश्वविद्यालय आदि छोड़ने का आह्वान कर रहे थे। वे घर लौटे और पत्नी की सहमति से 15 फरवरी, 1921 को 20 वर्ष की सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और महावीर प्रसाद पोद्दार के सहयोग से खादी भंडार खोला, चर्खे बनवाए, लेकिन उनके बस का व्यापार न था और वे व्यापार आदि छोड़कर एक महीने बाद ही 19 मार्च, 1921 को लमही गांव चले गए, लेकिन गांधी जी का साथ छूटा नहीं और ये जीवन और साहित्य दोनों में चलता रहा।

प्रेमचंद को गांधी जी से मिलने का अवसर वर्धा में मिला जब ‘हंस’ पत्रिका को गांधी जी ने अपनी देखरेख में लिया और ‘हंस लिमिटेड’ का रजिस्ट्रेशन हुआ। उनकी पत्नी शिवरानी देवी ने अपनी पुस्तक ‘प्रेमचंद: घर में’ विस्तार से इसका जिक्र किया है। प्रेमचंद ने अपने अनुभव के बारे में पत्नी से कहा, ‘जितना मैं महात्मा जी को समझता था, उससे कहीं ज्यादा वे मुझे मिले। महात्मा जी से मिलने के बाद कोई ऐसा नहीं होगा जो बगैर उनका हुए लौट आए, या तो वे सबके हैं या वे अपनी ओर सबको खींच लेते हैं। मैं महात्मा गांधी को दुनिया में सबसे बड़ा मानता हूं। उनका उद्देश्य है कि मजदूर और काश्तकार सुखी हों, वे इन लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रहे हैं। मैं लिखकर उनको उत्साह दे रहा हूं।’

असहयोग आंदोलन के दौरान प्रेमचंद अपने लेख ‘स्वराज्य के फायदे’ (जुलाई, 1921) में लिखते हैं कि महात्मा गांधी देश के भक्त हैं और परमात्मा ने उन्हें भारत का उद्धार करने के लिए अवतरित किया है। इसी वर्ष के अंत में उनका ‘प्रेमाश्रम’ उपन्यास प्रकाशित हळ्आ जो विशुद्धत: गांधीवादी रचना है। इस उपन्यास की कहानी और पात्रों की संरचना गांधी जी के किसान, गांव, पश्चिमी सभ्यता, र्अंहसात्मक सुधार, हृदय- परिवर्तन, ट्रस्टीशिप के विचारों के ताने-बाने से बुने गए हैं और कथा के पात्र प्रेमशंकर एवं मायाशंकर गांधी के विचारों को ही साकार करते हैं। ‘रंगभूमि’ (जनवरी, 1925) का नायक अंधा भिखारी सूरदास तो गांधी का ही प्रतीक है।

प्रेमचंद और गांधी में पश्चिमी सभ्यता, औद्योगीकरण, ईसाईकरण, अंग्रेजी साम्राज्यवाद, ग्राम्य-चेतना आदि में वैचारिक एकरूपता दिखाई देती है और प्रेमचंद कारखाने की स्थापना के विरुद्ध सूरदास द्वारा गांव की जमीन की रक्षा का संघर्ष चित्रित करते हैं जो गांधी के समान ही धर्म और नीति का सहारा लेता है। इस प्रकार सूरदास का संघर्ष स्वभूमि, स्वराज्य तथा स्वसंस्कृति की रक्षा का संघर्ष बनता है और ‘रंगभूमि’ को महाकाव्यात्मक उपन्यास बना देता है। प्रेमचंद का ‘कर्मभूमि’ (सितंबर, 1932) भी गांधी जी की स्वराज्य-दृष्टि और उनके व्यावहारिक कार्यक्रमों पर आधारित है। इस पर गांधी का नमक-कर कानून तोड़ना, नेताओं की गिरफ्तारी, गांधी-इर्विन पैक्ट, किसानों का लगान-बंदी आंदोलन आदि घटनाओं का सीधा प्रभाव है। इसी कारण इसे ‘गांधीवादी उपन्यास’ या राजनीतिक उपन्यास कहा जाता है। ‘गोदान’ तो कृषि संस्कृति एवं कृषक जीवन की महागाथा है। गांधी और प्रेमचंद दोनों की चिंता गांव की मूल संस्कृति को बचाने की है, बस अंतर यह है कि गांधी ग्रामोत्थान एवं रामराज्य की कल्पना करते रहे हैं और प्रेमचंद हमें गांव की जिंदगी के यथार्थ का साक्षात्कार कराते हैं।

गांधी और प्रेमचंद का साथ-साथ चलना हिंदी साहित्य में एक महान उपलब्धि का समय है। यह उपलब्धि माक्र्स और गांधी के संगम से संभव नहीं थी, क्योंकि कोई भी विदेशी विचार कुछ को प्रभावित कर सकता है, संपूर्ण जनता को नहीं। इस कारण भी प्रेमचंद गांधी के हमराही बनते हैं, क्योंकि वे माक्र्सराज नहीं रामराज्य चाहते हैं और राम भारतीय धर्म, संस्कृति, नीति, न्याय और सुशासन के प्रतीक हैं। गांधी के बाद हिंदी साहित्य ही नहीं, भारतीय साहित्य में ऐसा राष्ट्रीय-मानवीय संघर्ष एवं उत्कर्ष दिखाई नहीं देता तो इसका शायद यही कारण है कि कि उसके बाद कोई गांधी पैदा नहीं हुआ और इस कारण कोई प्रेमचंद भी नहीं बन पाया।

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