आज भारत के दो तिहाई से अधिक भूजल भंडार खाली हो चुके है। जिनके कारण खेती-उद्योग और पेय जल का संकट आजादी के बाद से 10 गुना अधिक बढ़ गया है। दूसरी तरफ बाढ़ भी आ रही है। बाढ़ भी आठ गुना अधिक क्षेत्रों में आने लगी है। वहां भी जल प्रदूषित हो गया है। जलपेय योग्य नही है। बिहार, ओडिशा, बंगाल जैसे राज्यों में भी जो बाढ़ क्षेत्र थे, वहां भी भूजल का संकट कई गुना तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन यह संकट क्यों बढ़ रहा है? यह जानना जरूरी है। भारत की आस्था प्रकृति की रक्षा थी। प्रकृति पर अतिक्रमण, प्रदूषण और षोषण करने वालों को अब बड़े सम्मानित व्यक्तियों की श्रेणी में माना जाता है। जबकि हमारे देश में लाभ से अधिक शुभ का महत्व था। लेकिन पिछले 150 साल में हम शुभ को भूलते चले गए और केवल व केवल लोभी, लालची बनकर लाभ कमाने के फेरे में लग गए। खेती को संस्कृति मानने वाला भारत खेती में बाजार मांग के अनुरूप अधिक जल खपत वाली फसलें पैदा करने लगा। परिणामस्वरूप धरती का पेट खाली हो गया। 90 प्रतिशत भूजल खेती में ही काम आ रहा है। भूजल को संपूर्ण रूप से उद्योग प्रदूषित कर रहे हैं। बाजारू खेती भी प्रदूषित कर रही है।
भूमि और मानवीय व्यवहार में प्यार, सम्मान, श्रद्धा, निष्ठा सभी कहीं दूर चले गए और बस हम सभी लाभ कमाने के लिए भूजल भंडारों को खाली करने में जुट गए हैं। हमारी सरकार ने ही हमें बाजारू खेती सिखायी। उसी के लिए अनुदान दिया। भारत भर में इसको बढ़ावा देने के लिए कर्ज और कर्ज लेकर घी पीने का संस्कार पैदा कर दिया। इस संस्कार ने लाभ के लिए प्रकृति को शोषण करना हमें सिखा दिया गया। जिससे हम धरती के पेट से भूजल निकालने की तकनीकइंजीनियरिंग पढ़कर बड़े बनने लगे।
मानव हो या प्रकृति उसके शरीर से पानी या खून जब अधिक निकल जाता है, तब उसकी सेहत खराब हो जाती है। आज धरती की सेहत खराब हो गयी है। अब अतिवृष्टि होती है, तो वह ऊपर की मिट्टी को काटकर बहा ले जाती है और नदियों का तल ऊपर उठने लगता है। जिससे उन क्षेत्रों के शहरों- गांवों में वर्षा के दिनों में बाढ़ आ जाती है। जहां से मिट्टी कटती है, वहां सुखाड़ आ जाता है। जब मिट्टी में नमी नहीं रहती तो हरियाली नही रहती, इससे जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव भुगतना पड़ता है। जब से धरती का पेट खाली होना शुरू हुआ तब से ही ये प्राकृतिक आपदाएं बढ़ी हैं। आज तो भूजल का आपातकाल है। लेकिन हमारी सरकारें तेज समाधान का बहाना बनाकर मुक्ति पा लेती हैं।
नीति आयोग ने भूजल बोर्ड को भूजल पुनर्भरण के कार्यों में अक्षम बताया और जल्दी समाधान ढूंढ़ने की बात कही। नीति आयोग को चाहिए कि देश में भूजल समाधान के सामुदायिक प्रभावी कार्यों को देशव्यापी विस्तार दे। मैंने 37 साल पहले बेपानी हो चुके अलवर के गोपालपुरा में वहीं के किसान से सीखकर जोहड़ बनाने का काम शुरू किया। तीन वर्षों में यह गांव पानीदार हो गया। अब यहां पंजाब से अधिक सब्जियां पैदा होती है। कल तक हमारे गांव के लड़के जयपुर, दिल्ली, अहमदाबाद, सूरत में मजदूरी करने जाते थे, अब ये वहां के ट्रक ऑपरेटरों को रोजगार देते है। देखिए, सिर्फ भूजल स्तर को बढ़ाकर किसी स्थान की तस्वीर कैसे बदल गई। हर हाथ को काम, पेट को भोजन, तन को कपड़ा और आत्मा को अपने स्थान पर रहने की संतुष्टि भूजल पुनर्भरण से मिल गई।
बिना करे खाने वाले लोग धरती पर भूजल पुनर्भरण नही कर सकते हैं। इसके लिए राष्ट्र व प्रकृति के प्रति समर्पण भाव चाहिए। हमारी सरकार की प्राथमिकता भी भूजल के आपातकाल से मुक्ति पाने की नहीं है। भारत में जल का निजीकरण खड़ा करने की कल्पना है। जहां-जहां जिन देशों में भूजल भंडार खाली हुए, वहां पानी के बाजार बने हैं। गरीब लोग उजड़े और मरे हैं। भूजल के शोषण रोकने के लिए सरकार को एक नए तरीके का लॉकडाउन करना होगा। समाज को जल संरक्षण व जल उपयोग दक्षता बढ़ाने, जल की शिक्षा व प्रशिक्षण देकर सक्षम बनाना होगा। खेती व उद्योग में भूजल के उपयोग पर रोक लगाना होगा। भूजल पुनर्भरण के लिए एक सक्षम कानून बनाने की दरकार है। भूमि व जल अधिकार को अलग-अलग करना होगा।