बेरोजगारी के सवालों को आंकड़ों में उलझाने का खेल

आम चुनावों में अब एक साल से कम समय बचा है और इन चुनावों में बेरोजगारी को मुद्दा बनाया जाना तय है. विपक्ष इसे लंबे समय से उठा रहा है और अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जवाब दिया है कि देश में बीते चार साल के दौरान भरपूर नौकरियां दी गई हैं लेकिन आंकड़ों में नई नौकरियां दिखाई नहीं दे रही हैं. सवाल उठता है कि क्या देश में बेरोजगारी के सवालों को आंकड़ों की बहस में उलझाकर कमजोर करने की कोशिश की जा रही है? कम से कम प्रधानमंत्री के बयान और बीजेपी शासित राज्यों से आ रही सफाई से तो यही लगता है.

नौकरी के आंकड़ों पर प्रधानमंत्री के बयान से पहले बीजेपी शासित छत्तीसगढ़ के कद्दावर नेता और राज्य सरकार में टेक्निकल एजुकेशन मंत्री पीपी पांडेय ने भी सवाल खड़ा किया था. पीपी पांडेय, जो राज्य में खुद रोजगार कार्यालय (एमप्लॉयमेंट एक्सचेंज) के आंकड़ों के लिए जिम्मेदार हैं, ने कहा था कि राज्य सरकार के आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता. गौरतलब है कि बीते 14 साल से छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की ही सरकार है.

पीपी पांडेय ने अपने इस बयान के पीछे दलील दी कि राज्य में युवा वर्ग रोजगार की न्यूनतम अर्हता की उम्र पर पहुंचते ही सरकार के रोजगार केन्द्र में अपना नाम लिखा देता है. लेकिन नाम लिखवाने के कुछ ही दिनों बाद वह या तो उच्च शिक्षा के लिए चला जाता है और उसे रोजगार की जरूरत नहीं रहती, या फिर वैकल्पिक रोजगार अथवा स्वरोजगार के जरिए अपना कारोबार शुरू कर देता है. ऐसे लोग अपना नाम सरकार के रोजगार केन्द्र से कटवाने के लिए नहीं जाते. बतौर राज्य सरकार के इस विभाग के मंत्री पीपी पांडेय ने दावा किया कि इसके चलते राज्य सरकार के बेरोजगारी आंकड़े वास्तविक आंकड़ों से बहुत अधिक आंके जाते हैं लिहाजा सरकार के इन आंकड़ों पर भरोसा नहीं किया जा सकता.

अब छत्तीसगढ़ से आए इस बयान के बाद देश के प्रधानमंत्री भी देश में बेरोजगारी के आंकड़ों पर सवाल उठाते हैं. प्रधानमंत्री कहते हैं कि भला ऐसा कैसे संभव है कि राज्य सरकारों द्वारा प्रति वर्ष लाखों की संख्या में नई नौकरी देने के बाद देश में बेरोजगारी के आंकड़े इतने अधिक हों?

प्रधानमंत्री का दावा है कि मौजूदा समय में देश में नौकरियों की गणना करने की व्यवस्था बेमानी है और मौजूदा दौर में नए भारत की नई अर्थव्यवस्था में पैदा हुई नई नौकरियों की गणना इस पुरानी व्यवस्था से नहीं हो रही है. इसी के चलते प्रधानमंत्री विपक्ष के आरोपों को सिरे से खारिज करने की जगह दावा कर रहे हैं कि विपक्ष का आरोप सरकारी आंकड़ों पर आधारित है. लिहाजा इसके लिए विपक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि खुद सरकार की व्यवस्था देश में रोजगार और बेरोजगारी के वास्तविक आंकड़ों को सटीक ढंग से एकत्र करने के लिए पर्याप्त नहीं है.

गौरतलब है कि साल की शुरुआत में देश के प्रधानमंत्री ने ‘पकौड़ा रोजगार’ की बात कर राजनीतिक भूचाल खड़ा कर दिया था. इस मुद्दे पर विपक्ष ने तो बीजेपी सरकार को घेरा ही, सोशल मीडिया पर भी प्रधानमंत्री का यह बयान सुर्खियों में रहा. इस बयान के बाद कांग्रेस नेता और पूर्व की यूपीए सरकार में प्रधानमंत्री रहे मनमोहन सिंह ने बीजेपी पर झूठे और अतिश्योक्ति भरे वादों के सहारे सत्ता पर काबिज होने का आरोप लगाया. मनमोहन सिंह ने कहा कि बीजेपी ने 2014 के आम चुनावों में 1 करोड़ नौकरी प्रति वर्ष देने का वादा किया, वहीं सत्ता पर काबिज होने के बाद 2 लाख नौकरी देने में भी बीजेपी सरकार पूरी तरह से विफल साबित हुई है.

इन वादों से इतर वित्त वर्ष 2016-17 के आर्थिक सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर वित्त वर्ष 2013-14 के 4.9 फीसदी के स्तर से 2016-17 में 5 फीसदी पर पहुंच गई. वहीं जुलाई 2014 से दिसंबर 2016 तक देश में कुल 6 लाख 41 हजार नई नौकरियां पैदा की गईं. वहीं श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2011 से दिसंबर 2013 के दौरान देश में 10 लाख से ज्यादा नौकरियां पैदा की गईं.

स्वाभाविक है कि इन आंकड़ों को विपक्ष में बैठे राजनीतिक दल आम चुनावों के दौरान भुनाने की कोशिश करेंगे. लिहाजा, सत्तारूढ़ राजनीतिक दल का इन सरकारी आंकड़ों पर असहज होना भी स्वाभाविक है. लेकिन क्या महज चुनावों में मुद्दों को खड़ा करने अथवा मुद्दों से बचने के लिए सरकारी आंकड़ों पर सवाल उठाकर सरकार का पल्ला झाड़ना उचित है. यदि एक के बाद एक सभी राजनीतिक दल करोड़ों नौकरी का वादा कर सत्ता में आ रहे हैं और विफल भी हो रहे हैं तो ऐसी स्थिति में आंकड़ों में नौकरी दिखाना देश में बेरोजगारी की समस्या से निपटने की दिशा में कितना उचित है?

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