जुमलेबाज पार्टी, नेता-विहीन पार्टी, लोगों को लाइन में खड़ा करवा देने वाली पार्टी, तीन साल में कुछ काम न कर पाने वाली पार्टी ये कुछ वे विश्लेषण हैं जिनसे पिछले दो महीनों में उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी को अलंकृत किया गया था.
ये और इससे भी गंभीर आरोप भारतीय जनता पार्टी, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष पर लगाए गए थे, और आरोप लगाने वालों में प्रदेश के मुख्य मंत्री अखिलेश यादव, उनके मंत्री, बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती, कांग्रेस के राहुल गाँधी और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष व अन्य नेता थे.
लेकिन उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने इन्हें न केवल अनदेखा करके और संयम दिखाते हुए न केवल बिना मुख्य मंत्री के चेहरे के चुनाव लड़ने वाली पार्टी भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व बहुमत दिया बल्कि एक तरह से मोदी पर पूरा विश्वास जताया है कि वे जिसे चाहे उसे उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बनायें, उन्होंने यह निर्णय भी मोदी पर छोड़ दिया है.
पिछले पांच सालों से बड़े बहुमत के साथ प्रदेश पर शासन कर रही समाजवादी पार्टी के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रदेश में अनेक परियोजनाएं शुरू कीं, और उन्हें ही अपने चुनाव प्रचार का आधार बनाया था, और चुनाव के कुछ दिन पहले ही कांग्रेस के साथ गठबंधन करके अपने नारे ‘यू.पी. को ये साथ पसंद है’ को बुलंद किया.
लेकिन पिछले साल समाजवादी पार्टी के यादव परिवार में हुए घटनाक्रम की वजह से लोगों के बीच यह संदेश गया कि अखिलेश पार्टी और सरकार को अपने तरीके से चलाना चाहते हैं, और उन्हें इसमें अपने पिता मुलायम सिंह यादव की भी दखल पसंद नहीं है. चुनाव नतीजे से तो यही लगता है कि अखिलेश का काम, गठबंधन का नाम और पिता का तथाकथित अपमान यू.पी. को पसंद नहीं आया. और इसके विपरीत, मोदी के आरोप, मोदी के वादे और भारतीय जनता पार्टी के रिकॉर्ड को लोगों ने सर आँखों पर रखा.
लेकिन अखिलेश को यह लगता है कि प्रदेश के लोगों को उनका काम पसंद नहीं आया, और उन्होंने बहकावे में आकर वोट दिया है. अपनी पार्टी के अंदरूनी घटनाक्रम और अपनी सरकार की कार्यशैली के समीक्षा करने के बजाये उन्होंने बीजेपी के प्रचार को ही अपनी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया है.
जानें, आखिर मुसलमान क्या सोचते हैं योगी आदित्यनाथ के बारे में?
यह केवल सपा-कांग्रेस गठबंधन की ही हार नहीं है, बल्कि मायावती ब्रांड की राजनीति के लिए भी खतरे की घंटी है. मूलतः दलितों के हितों के संरक्षण के कथित उद्देश्य से बनाई गई बहुजन समाज पार्टी उत्तर प्रदेश में चार बार सात में रह चुकी है और चारों बार मायावती ही मुख्य मंत्री थीं. और इस बार उन्हें पूरी उम्मीद थी कि प्रदेश में सपा और बसपा के बीच बारी बारी से सत्ता में आने की परंपरा में अब बसपा का नंबर लगेगा.
लेकिन जिस तरह से प्रदेश के मतदाताओं ने बसपा को लगभग पूरी तरह से नकार दिया है, उससे मायावती के सामने गंभीर राजनीतिक संकट खड़ा हो सकता है. इसके पहले 2014 के लोक सभा चुनाव में बसपा को प्रदेश से एक भी क्षेत्र से जीत नहीं मिली थी.
यहां तक की यदि जनसंख्या में बसपा के स्थापित समर्थकों के समुदाय की हिस्सेदारी को ही आधार माना जाए तो शायद उस समुदाय ने भी बहन मायावती से मुंह मोड़ लिया है. नतीजों के बाद दी गई अपनी प्रतिक्रिया में तो मायावती ने भाजपा पर वोट मशीन (ई.वी.एम.) के साथ छेड़-छाड़ का आरोप लगा दिया. यही नहीं, उन्होने यहाँ तक कहा कि अन्य पार्टियों के समर्पित मतदाताओं का भाजपा के पक्ष में चले जाना किसी के गले नहीं उतर रहा है.
इन नतीजों ने उत्तर प्रदेश से जुडे कुछ अनुमानों को भी नकार दिया है, जैसे जातिवाद का बोलबाला, ध्रुवीकरण का महत्त्व, राष्ट्रीय दलों की अप्रासंगिकता, क्षेत्रीय, जाति-आधारित दलों का प्रभाव, और प्रादेशिक क्षत्रपों का बोलबाला. भाजपा की इस जीत ने इन सभी अनुमानों को दरकिनार कर कर दिया है. सपा और बसपा के हाशिये पर जाने से यह स्पष्ट है कि पिछड़ी और दलित जातियों के लोगों ने बड़ी मात्रा में बीजेपी को समर्थन दिया है.
साथ ही, एक राष्ट्रीय पार्टी द्वारा केवल एक राष्ट्रीय नेता (नरेन्द्र मोदी) को आगे रख कर क्षेत्रीय क्षत्रपों के महत्त्व को एकदम से घटा कर रख दिया है. और कई सारे मुस्लिम-बहुल इलाकों में भाजपा के प्रत्याशी का जीतना यह भी स्थापित करता है कि शायद अल्पसंख्यक वर्ग ने भी बड़ी हद तक भाजपा का समर्थन किया है और ऐसा तब हुआ जब भाजपा ने एक भी मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव में नहीं उतारा था.
जहां राहुल गांधी पंजाब में अपनी पार्टी को मिली बड़ी जीत के दम पर कांग्रेस में अपने प्रभुत्त्व को बनाये रख सकते हैं, वहीँ अखिलेश के सामने बहुत बड़ी चुनौती है अपने परिवार और पार्टी में अपने कार्यकाल और कार्य प्रणाली का औचित्य साबित करना. जिस तरह से उन्होंने पहले पार्टी पर पूरा नियंत्रण पाने के लिए पार्टी को विभाजन की कगार पर खड़ा कर दिया, वैसी ही पार्टी पर नियंत्रण पा लेने के बाद उन्होंने कांग्रेस के साथ चुनाव-पूर्व गठबंधन कर लिया.
यही नहीं, उन्होंने कांग्रेस को उस पार्टी की जीत की सम्भावना से ज्यादा सीटें देकर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी नाराज़ किया. अपने काम की बदौलत जीत की उम्मीद लगाये अखिलेश को जबरदस्त झटका लगा है और अब उनके हर निर्णय पर पार्टी के भीतर ही सवाल उठ सकते हैं. और इन सवालों के जवाब देने के लिए उनके नए मित्र राहुल गांधी शायद ही उनकी कोई मदद कर पाएं.
आदित्यनाथ को लेकर विदेशी मीडिया ने कहा, उन्होंने मुस्लिम संबंधी इस फैसले का किया था समर्थन
नतीजों के बाद अपनी प्रेस वार्ता में अखिलेश ने गठबंधन को उचित ठहराने की हर संभव कोशिश की और कहा कि गठबंधन जारी रहेगा. लेकिन वे यह भी कहने से नहीं चुके कि ‘समझाने से नहीं बल्कि बहकाने से वोट मिलता है’ उम्मीद की जा सकती है कि अखिलेश अपनी हार की समीक्षा करते समय दूसरों के ‘बहकाने’ के बजाय कुछ आत्ममंथन भी करेंगे.
 Live Halchal Latest News, Updated News, Hindi News Portal
Live Halchal Latest News, Updated News, Hindi News Portal
 
		
 
 
						
 
						
 
						
 
						
 
						
