बस कर ले इतना ,आपकों भी होगा ज्ञात कि अगले जनम क्या बनेंगे आप !

श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्म को जीव की योनि निर्धारण का महत्वपूर्ण कारण बताया है।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं  याति देहभृत।
तदोत्तमविदां लोकानमलान्प्रतिपद्यते
रजसि प्रलयं गत्वां कर्मसंगिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते   (अध्याय 14 श्लोक 14-15)

अर्थात सतगुणधारी जीव जब इस संसार से विदा लेता है तब उसे शुद्ध गति प्राप्त होती है और वह ऋषि-मुनियों के लोक में निवास करता है जबकि रजोगुणी व्यक्ति पुनर्जन्म लेकर सकाम कर्म की ओर प्रवृत्त होता है और तमोगुणी इस लोक से सीधा पशु योनि में जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि कर्म योनियां कितने प्रकार की होती हैं? भारतीय धार्मिक साहित्य में तीन तरह की कर्म योनियों की चर्चा की गई है जो इस प्रकार है-

कर्म योनि, भोग योनि और भय योनि। भोग योनि वही है जिसमें केवल भोग ही भोगा जाता है और कर्म नहीं किया जाता। वह बंदी के समान है उसे ही पशु योनि कहते हैं। भय योनि वह है जिसमें पिछले कर्मों का फल भी भोगा जाता है और आगे के लिए कर्म भी किया जाता है। वह योनि मनुष्य योनि कहलाती है। कर्म योनि भी दो प्रकार की है। एक तो वह जो आदि सृष्टि में बिना माता-पिता के मुक्ति से लौटे हुए जीव सृष्टि उत्पन्न करने मात्र के लिए पैदा होते हैं। उसे अमैथुनी कहते हैं। दूसरे वह जो माता-पिता के संयोग से पैदा होते हैं। वे मैथुनी कहलाते हैं। उनका जन्म केवल मोक्ष प्राप्ति के साधन और मुक्ति पाने योग्य ज्ञान प्राप्त करने के लिए ही होता है।

ऐसे कर्म योनि वाले जीवों ने जन्म-जन्मांतरों में तप किया होता है। वह उसके प्रभाव से अपनी केवल थोड़ी सी कसर पूरी करने के लिए जन्म लेते हैं। उन पर भगवान की दया होती है। वे कर्म योग, ज्ञान योग अथवा भक्ति योग द्वारा किसी फल की इच्छा किए बिना निष्काम-भावना से कर्म करते हैं इसलिए वे मुक्त हो जाते हैं।

मनुष्य जन्म दुर्लभ है मिले न बारंबार।
तरुवर से पत्ता झड़े, फिर न लागे डार॥

अर्थात जब मनुष्य एक बार पशु योनि में चला जाता है तो फिर उसको मनुष्य जन्म नहीं मिलता। यह महात्माओं का अपना-अपना अनुभव है। उनका यह विचार है कि प्रभु बड़े दयालु हैं। अपने अमृत पुत्रों (जीवों) को उनके कर्मानुसार केवल उनके सुधारने के लिए जन्म देते हैं। वह उन्हें अपनी ओर बार-बार उठने और आने का अवसर देते हैं। भगवान कर्मानुसार यथोचित योनियां भुगतकर फिर कभी किसी समय नए सिरे से मनुष्य योनि प्रदान करेंगे जिससे वह पहले समय में किए हुए अशुभ कर्मों के प्रभाव से मुक्त और पवित्र होकर यदि चाहे तो फिर अपना उद्धार कर ले और धीरे-धीरे आवागमन से छुटकारा पाकर परम पद प्राप्त कर सके।

मनु ने भी यही लिखा है कि प्रभु वास्तव में जीव को उसके सुधार तथा उपकार के लिए बार-बार जन्म देते हैं परन्तु ऐसा नहीं करते कि एक ही बार उसे मनुष्य जातियों की उत्तम योनियां देकर फिर नीच पशु आदि योनियों में भेज दें वरन् उनके भले-बुरे कर्मानुसार उनका योनि क्रम साथ ही साथ बदलता रहता है।

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