पश्चिम बंगाल का विधानसभा चुनाव बीते दस साल से सत्ता में रही तृणमूल कांग्रेस और अबकी सत्ता के सबसे बड़े दावेदार के तौर पर उभरती भाजपा के लिए नाक और साख का सवाल बन गया है। बीते लगभग पांच दशकों में यह तीसरा मौका है जब 294 सीटों वाली इस विधानसभा के लिए होने वाला चुनाव देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी सुर्खिया बटोर रहा है। इससे पहले वर्ष 1977 और उसके बाद 2011 के विधानसभा चुनावों ने ही सुर्खियां बटोरी थीं।
यूं तो बिहार विधानसभा चुनावों से पहले राज्य में राजनीतिक सरगर्मियां तेज हो गई थीं, लेकिन चुनावों की तारीख के एलान के बाद जहां दोनों प्रमुख दावेदार अपनी रणनीति को और चाक-चौबंद करने में जुट गए हैं। वहीं अपनी वजूद की लड़ाई लड़ रही लेफ्ट और कांग्रेस भी इन दोनों का विकल्प बनने का दावा करते हुए मैदान में उतर गई है। इनके अलावा इंडियन सेक्यूलर फ्रंट के पीरजादा अब्बासी और असदुद्दीन ओवैसी भी राज्य के लगभग तीस फीसदी अल्पसंख्यक वोट बैंक में सेंध लगाने के मकसद से चुनाव लड़ने की तैयारी में हैं।
बिहार और उत्तर प्रदेश के उलट बंगाल में चुनावों पर कभी जात-पांत की राजनीति हावी नहीं रही है, लेकिन राज्य की राजनीति में खासकर बीते लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिली कामयाबी के बाद इन विधानसभा चुनावों के मौके पर पहली बार राजनीति में जात-पांत का तड़का नजर आ रहा है। बंगाल की राजनीति का यह नया पहलू है। पिछड़ी जातियों को लामबंद करने की भाजपा की इस आक्रामक रणनीति की काट के लिए सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस समेत दूसरे राजनीतिक दलों को भी मजबूरन यही रणनीति अपनानी पड़ रही है। पहले वाममोर्चा और फिर तृणमूल कांग्रेस के शासन के शुरुआती दौर में यहां पहचान की नहीं बल्कि पार्टी की राजनीति हावी थी। खासकर ग्रामीण इलाकों के मतदाता अब तक खुद को उसी राजनीतिक दल से जोड़ कर देखते थे जिसका समर्थन करते थे। लेकिन अबकी पहली बार चुनावी राजनीति में मतुआ, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और दलित वोट बैंक की चर्चा हो रही है। राजनीतिक विश्लेषकों की राय में बीते चार-पांच दशकों में यह बंगाल की राजनीति में आने वाला सबसे अहम बदलाव है।
भाजपा जहां अबकी राज्य की 294 में से दौ सौ से ज्यादा सीटें सीट कर सत्ता में आने का दावा कर रही है, वहीं दस साल से राज कर रहीं ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस भी सत्ता की हैट्रिक बनाने का दावा कर रही हैं। हालांकि इन दोनों में से किसी की राह इतनी आसान नहीं है। चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की मदद के बावजूद तृणमूल कांग्रेस अंदरुनी गुटबाजी से जूझ रही है तो दूसरी ओर, तृणमूल का असली और एकमात्र विकल्प होने का दावा करने वाली भाजपा के पास न तो मुख्यमंत्री का कोई चेहरा है और न ही ममता के मुकाबले का कोई कद्दावर नेता। यही वजह है कि बंगाल में पार्टी के चुनाव अभियान की बागडोर प्रधानमंत्री अमित शाह, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जे.पी.नड्डा जैसे केंद्रीय नेताओं के हाथों में ही है।
सत्ता की प्रमुख दावेदार के तौर पर उभरी भाजपा की ओर से मिलने वाली कड़ी चुनौतियों की वजह से तृणमूल कांग्रेस प्रमुख औऱ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं। ऊपर से पार्टी में बढ़ते असंतोष और बगावत ने उनकी राह और मुश्किल कर दी है। राजनीतिक हलकों में इसे ममता के राजनीतिक करियर का सबसे कठिन दौर माना जा रहा है। हाल तक सरकार और पार्टी में जिस नेता की बात पत्थर की लकीर साबित होती रही हो, उसके खिलाफ जब दर्जनों नेता आवाज उठाने लगे हों तो यह सवाल उठना लाजिमी है। वैसे कांग्रेस की अंदरुनी चुनौतियों से जूझते हुए अलग पार्टी बना कर लेफ्ट से दो-दो हाथ कर चुकीं ममता इन चुनौतियों से घबरा कर पीछे हटने की बजाय इनसे निपटने की रणनीति बनाने में जुट गई हैं।
वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों के समय से यानी बीते करीब पंद्रह वर्षों से तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी एक-दूसरे के पर्याय बन गए थे। पार्टी में किसी नेता की इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके किसी फैसले पर अंगुली उठा सके। लेकिन अब बीते तीन-चार वर्षों में उनकी पकड़ कुछ कमजोर हुई है। लगभग दस साल तक सत्ता में रहने के बाद नेताओं में कुछ असंतोष और नाराजगी तो जायज है, लेकिन भाजपा ने खासकर बीते लोकसभा चुनावों से जिस तरह आक्रामक रुख अपनाया है और पार्टी के नेताओं को अपने पाले में खींच रही है, वह ममता के लिए गंभीर चुनौती बन गया है। लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद ममता ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएं ली थीं, लेकिन उनका यह दांव भी कुछ हद तक उल्टा ही पड़ता नजर आ रहा है। कई नेताओं के पार्टी छोड़ने और पार्टी के भीतर फैलते असंतोष के पीछे मूल कारण यह प्रशांत किशोर ही बन गए हैं, लेकिन बावजूद इसके ममता का भरोसा उन पर जस का तस है।
दूसरी ओर, ममता बनर्जी की सत्ता को चुनौती देने वाली भाजपा की सबसे मुश्किल समस्या यह है कि उसके पास मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा नहीं है। पार्टी को बहुमत मिलने की स्थिति में इस पद के कम से कम आधा दर्जन उम्मीदवार हैं। इसलिए शीर्ष नेतृत्व किसी चेहरे को सामने नहीं कर पा रहा है। उससे अंदरुनी गुटबाजी तेज होने का अंदेशा है। इसके अलावा उसके ऐसी कद-काठी का कोई ऐसा नेता नहीं है जिसे ममता बनर्जी के मुकाबले खड़ा किया जा सके। फिलहाल वह तृणमूल के बागियों को अधिक से अधिक तादाद में अपने पाले में खींचने की रणनीति पर चल रही है। कथनी और करनी में अंतर साबित करते हुए पार्टी ने तृणमूल कांग्रेस से आने वाले तमाम दागियों और बागियों के लिए अपने दरवाजे खोल रखे थे। हालांकि इससे पार्टी में बढ़ते असंतोष के बाद उसने इस पर कुछ अंकुश लगाया है।
उधर, लेफ्ट और कांग्रेस के गठबंधन को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह लड़ाई को तिकोना बनाने में कामयाब होगा? वर्ष 2011 के बाद लेफ्ट और कांग्रेस की राजनीतिक जमीन लगातार खिसकती रही है, लेकिन अबकी यह गठबंधन तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बनने का दावा कर रहा है। वैसे, इससे पहले भी यह दोनों पार्टियां हाथ मिला चुकी हैं, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही रहा था। बीते विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 44 सीटों से ही संतोष करना पड़ा था जबकि करीब साढ़े तीन दशक तक राज करने वाले लेफ्ट को महज 32 सीटें ही मिली थीं। लेकिन कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में रैली के जरिए अपना अभियान शुरू करने वाले इस गठबंधन को उम्मीद है कि भाजपा और तृणमूल कांग्रेस से आजिज आ चुके लोग विकल्प के तौर पर अबकी उसे ही चुनेंगे।
पश्चिम बंगाल में बीते लोकसभा चुनावों से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह ने तृणमूल कांग्रेस के भ्रष्टाचार को ही सबसे बड़ा मुद्दा बना रखा है। इसके अलावा पार्टी ने राज्य में कानून व व्यवस्था की स्थिति में कथित गिरावट का दावा करते हुए समय से पहले केंद्रीय बलों की तैनाती की मांग भी उठाई है। अपने आरोपों को वजनी बनाने के लिए दोनों नेता तोलाबाजी (उगाही) और सिंडीकेट के अलावा ममता के भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी का नाम बार-बार लेते रहे हैं। अमित शाह अपनी तमाम रैलियों में कहते रहे हैं कि मां, माटी और मानुष के नारे के साथ सत्ता में आने वाली तृणमूल कांग्रेस ने अब इस नारे तोलाबाजी, तुष्टिकरण और भतीजावाद में बदल दिया है।
अबकी बार भी यहां विपक्ष के पास भाई-भतीजावाद, भ्रष्ट्राचार, सिंडीकेट, कानून व्यवस्था और राजनीतिक हत्या जैसे पारंपिरक मुद्दे हैं, लेकिन इस बार असली मुकाबला ममता के बंगाली उप-राष्ट्रवाद और भाजपा के हिंदू राष्ट्रवाद के बीच ही होने के आसार हैं। राज्य में भाजपा के उदय के साथ ही ममता ने बांग्ला उप-राष्ट्रवाद का कार्ड खेलना शुरू किया था। लेकिन खासकर वर्ष 2018 के पंचायत चुनावों और उसके बाद बीते लोकसभा चुनावों में भगवा पार्टी को मिली कामयाबी के बाद उन्होंने इसे तुरुप का पत्ता बना लिया है। यही वजह है कि वे अक्सर बंगाली अस्मिता और पहचान का मुद्दा उठाती रही हैं। वैसे, यह बात भाजपा भी अच्छी तरह समझ रही है कि बंगाल के लोगों में अपनी जाति और नायकों के प्रति गहरा भावनात्मक लगाव है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर अमित शाह और जे.पी. नड्डा समेत तमाम केंद्रीय नेता राज्य के दौरे पर अपने भाषणों में चैतन्य प्रभु, रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद का जिक्र करना नहीं भूलते।
ममता अच्छी तरह जानती हैं कि वे संसाधनों के मामले में भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकतीं। इसलिए उन्होंने इस बांग्ला उप-राष्ट्रवाद को ही अपना प्रमुख हथियार बनाने का फैसला किया है। वैसे, वे पहले से ही अपने बयानों में इसका संकेत देती रही हैं। तृणमूल कांग्रेस प्रमुख कई बार कह चुकी हैं कि बंगाल में बंगाली ही राज करेगा, गुजराती नहीं। अपने भाषणों में ममता भाजपा को बाहरी कहती रही हैं। बीते साल लोकसभा चुनावों के मौके पर केंद्रीय मंत्री अमित शाह के रोड शो के दौरान ईश्वर चंद्र विद्यासागर की प्रतिमा तोड़े जाने को भी उन्होंने इस बांग्ला राष्ट्रवाद को खूब भुनाया था। आखिरी दौर के मतदान से पहले हुई इस घटना को बांग्ला राष्ट्रवाद से जोड़ने का ही नतीजा था कि उस दौर में भाजपा का खाता तक नहीं खुल सका था।