पूर्वोत्तर में हिंदी : स्थिति और चुनौतियां पर विचार गोष्ठी का आयोजन

केन्द्रीय हिंदी संस्थान आगरा एवं विश्व हिंदी सचिवालय मारीशस एवं अन्य सहयोगी संस्थाओं के तत्वावधान में वैश्विक हिंदी परिवार का साप्ताहिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। कार्यक्रम के प्रथम चरण में वार्तालाप श्रंखला के अंतर्गत उड़िया की ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त साहित्यकार डॉ प्रतिभा राय से प्रसिद्ध अनुवादक एवं साहित्यकार डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ने वार्तालाप किया।

कार्यक्रम के प्रारम्भ में डॉ जवाहर कर्नावट ने डॉ प्रतिभा राय का संक्षिप्त परिचय दिया और उनके साहित्यिक अवदान के बारे में बताते हुए कहा कि उनके 28 कहानी संग्रह, 20 से अधिक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। डॉ राय को ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी एवं पद्मश्री सहित साहित्य समाज के अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। प्रसिद्ध साहित्यकार राजेश कुमार ने वार्तालाप का प्रारम्भ करते हुए डॉ राय से उनकी पहली रचना का समय और उसकी पृष्ठभूमि के विषय में पूछा। डॉ प्रतिभा राय ने कहा कि उनके मन में कुछ क्रोध, आवेग, भाव सदैव भरा रहता है और उसे वे जब तक व्यक्त नहीं कर लेतीं तब तक चैन नहीं मिलता है। इसलिए पहली रचना एक कविता के रुप में शायद स्कूल के दौरान लिखी थी जब वे यह भी नहीं जानती थीं कि कविता क्या होती है ? उन्होंने कहा कि उनके पिता उन्हें डॉक्टर बनाना चाहते थे किंतु मेरे सपनों पर पिता का अधिकार कैसे हो सकता है, यह विद्रोह उन्हें अपनी पसंद के विषय पढ़ने की ओर ले गया। यद्यपि जल्दी शादी एवं बालकों के पालन पोषण से साहित्यिक यात्रा में रुकावट आई किंतु पति के बड़े भाई के सहयोग से फिर समय मिलने लगा और पढ़ाई भी आगे की और फिर नौकरी करते हुए विभिन्न पदों पर रही, उड़ीसा राज्य सेवा आयोग में रहीं और साहित्य सृजन भी चलता रहा।।

अपने साहित्य के दोनों अनुवादकों प्रो. शंकर लाल पुरोहित एवं साक्षात्कार कर रहे डॉ. राजेन्द्र मिश्र जी के प्रति उन्होंने आभार व्यक्त किया। अपने जीवन के विषय में उन्होंने स्वीकार किया कि मेरा जीवन कमल के पत्ते पर जीवन जैसा ही है जिसे कि आत्मकथा के रुप में जीकर लिखा है और मैं चाहती हूँ कि जात-पात विहीन समाज बने जिसमें सब आदमी हों कोई जाति या भेद न हो किसी के प्रति कोई अन्याय न हो जिसे देखकर वे पीड़ा और कुंठा में शब्द रचती हैं। कार्यक्रम में डॉ प्रतिभा रॉय, डॉ राजेन्द्र प्रसाद मिश्र जी एवं अन्य सभी आयोजकों तथा श्रोताओं के प्रति डॉ. चंद्रशेखर चौबे ने आभार प्रकट किया।

कार्यक्रम के दूसरे सत्र में केंद्रीय हिन्दी संस्थान के गुवाहाटी केंद्र के निदेशक डॉ राज वीर सिंह ने संचालन करते हुए पूर्वोत्तर के सभी अतिथि वक्ताओं का संक्षिप्त परिचय कराया। असम विश्वविद्यालय गुवाहाटी के हिन्दी विभाग के प्रो दिलीप मेधी ने कहा कि पहले की अपेक्षा गत पाँच वर्षों में पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति मजबूत हुई है।

अरुणाचल प्रदेश के ईटानगर स्थित देरानातुंग शासकीय महाविद्यालय की हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ जोराम अनीया ताना ने बताया कि इस कार्यक्रम से जुड़कर मैं बहुत खुश हूँ। अभी अरुणाचल प्रदेश में कुल 25 जिले हैं जहां नर्सरी से दसवीं तक हिन्दी पढ़ना अनिवार्य है। इसके साथ-साथ उन्होने शिक्षक-पत्रकार रमन शांडिल्य के अथक प्रयासों एवं दूर दराज़ क्षेत्रों में जाकर जी तोड़ मेहनत से हिन्दी शिक्षक तैयार करने को विशेष रूप से याद किया।

त्रिपुरा विश्वविद्यालय अगरतला की हिन्दी प्रोफेसर डॉ मिलन रानी जमातिया ने कहा कि त्रिपुरा में 1952 में प्रत्येक हाई स्कूल में सांध्यकालीन हिन्दी प्रचार केंद्र खोले गए जहां पाँचवीं से आठवीं कक्षा तक हिन्दी अनिवार्य थी। हिन्दी शिक्षक नियुक्त हुए किन्तु रामेंद्र कुमार पाल के शब्दों में ‘1965 में अचानक हिन्दी विरोधी आंदोलन ने हिन्दी के हरे भरे अंचल को जलाकर राख़ कर दिया। इस अवसर पर डॉ सुशील चौधरी ने कहा कि यहाँ हिन्दी का प्रचार प्रसार अनेक पड़ावों से गुजरा है। अब स्थिति संतोषजनक है।  

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