अमेरिकी कांग्रेस की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर भारत ने अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। इस मामले में वह बहुत संभल कर चल रहा है। उधर, रूस, पाकिस्तान और श्रीलंका ने चीन के साथ अपनी दोस्ती का निर्वाह करते हुए ड्रैगन के कदम का समर्थन किया है। हालांकि, भारत की ओर से इस मामले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। इतना ही नहीं भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर और अमेरिका में उनके समकक्ष एंटनी ब्लिंकन की मुलाकात भी हुई, लेकिन इस मामले में कोई संयुक्त बयान सामने नहीं आया है। ऐसे में सवाल उठता है कि चीन के इस स्टैंड पर भारत की नीति क्या है। भारत ने पूरे मामले में चुप्पी क्यों साधी है। भारत ने चीन को क्या संदेश दिया है।
विदेश मामलों के जानकार प्रो हर्ष वी पंत का कहना है कि भारत-चीन सीमा विवाद और तनावपूर्ण संबंधों के बाद देश ने वन चाइना का जिक्र छोड़ दिया है। उन्होंने कहा कि भारत ने यह निर्णय तब लिया जब चीन ने अरुणाचल प्रदेश को अपना हिस्सा बताने वाले बयान दिए थे। चीन ने अरुणाचल के दो शहरों को मंदारिन भाषा में नाम दिए और जम्मू-कश्मीर और अरुणाचल में रहने वाले वाले भारतीय नागरिकों के लिए स्टेपल वीजा जारी किया था। इसके बाद से भारत के वन चाइना के दृष्टिकोण में बदलाव देखा गया।
उन्होंने कहा कि इस साचे के पीछे यह धारणा है कि अगर चीन हमारे लिए संवेदनशीलता नहीं दिखा रहा तो हमें वन चाइना नीति को दोहराने की जरूरत क्यों है। भारत की नीति में बदलाव नहीं था बस उसे नहीं दोहराने का निर्णय लिया गया था। उन्होंने कहा कि भारत ने ऐसा करके यह संदेश दिया है कि अगर भारत वन चाइना नीति को मान रहा है तो चीन को भी वन इंडिया के विचार और सिद्धांत का सम्मान करना चाहिए। प्रो पंत ने कहा कि वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार के आने के बाद चीन के प्रति इस फैसले को स्वीकार किया गया। उस वक्त विदेश मंत्री सुषमा स्वराज थीं।
प्रो पंत ने कहा कि अमेरिकी कांग्रेस की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी की ताइवान यात्रा को लेकर भारत मौन रहा है। भारत की नीति रही है वह किसी अन्य देश के द्विपक्षीय मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता है। हालांकि, इस मामले में ताइवान और चीन ने भारत का जिक्र किया है। ताइवान के राजदूत बाओशेन गेर ने इस घटना के बाद कहा था कि अगर लोकतांत्रिक सिद्धातों के प्रति चीन की उपेक्षा और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के उल्लंघन पर ध्यान नहीं दिया गया और दूसरे लोकतांत्रिक देशों ने चुप्पी साधे रखी तो सिर्फ ताइवान ही नहीं बल्कि दूसरे स्वतंत्रत्र और कानून से संचालित देश भी दीर्घकाल में इसका खामियाजा भुगतेंगे। उनका इशारा भारत की ओर भी था।
चीन के खिलाफ लोकतांत्रिक देश एकजुट हों
ताइवानी राजदूत ने कहा कि ताइवान और भारत दोनों चीनी आक्रामकता और विस्तारवाद का सामना कर रहे हैं। इस बाबत उन्होंने गलवान घाटी में भारत और चीनी संघर्ष का भी जिक्र किया। ताइवानी राजदूत ने कहा कि चीनी आक्रामकता को देखते हुए एक विचारधारा और लोकतांत्रिक देशों को उसके खिलाफ एकजुट होने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं कि चीन इस समय ताइवान और दक्षिण चीन सागर में व्यस्त है, इससे ड्रैगन का ध्यान हिंद महासागर व भारत से कम हो जाएगा। उन्होंने कहा कि चीन के खिलाफ लोकतांत्रिक मूल्यों वाले राष्ट्रों को एकजुट होना चाहिए।
चीन ने चली कूटनीतिक चाल, भारत रहा मौन
उधर चीन के दूतावास ने अपना बयान जारी कर कहा कि वन चाइना नीति को लेकर भारत सहित अंतरराष्ट्रीय समुदाय के बीच सामान्य सहमति है। साथ ही यह किसी भी देश के साथ संबंधों को विकसित करने के लिए चीन की राजनीतिक बुनियाद है। खास बात यह है कि चीनी दूतावास का यह बयान नैंसी के दौरे के बाद जारी किया गया था। इसमें कहा गया है कि भारत वन चाइना को मान्यता देने वाले पहले देशों में रहा है। प्रो पंत ने कहा कि यह चीन की एक बड़ी कूटनीति चाल का हिस्सा है। भारत ने इस बयान पर अपनी कोई प्रतिक्रिया नहीं दिया है। चीन के इस बयान पर भारत की मौन के बड़े मायने हैं। भारत वर्ष 2014 की अपने नीति पर कायम है।