अरविंद केजरीवाल के तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ समारोह को लेकर दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर पूरे एक पेज के विज्ञापन में कवितानुमा ये इबारत भी लिखी थी, जिसमें कहीं भी दिल्ली का जिक्र नहीं है बल्कि भारत पर जोर है। ये विज्ञापन और इन पंक्तियों को देखकर मुझे 2012 के गुजरात विधानसभा चुनावों में जीत के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का अहमदाबाद में भाजपा कार्यकर्ताओं को हिंदी में दिया गया भाषण याद आ गया, जबकि इसके पहले 2002 और 2007 के विधानसभा चुनावों में जीत के बाद नरेंद्र मोदी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को अपना भाषण गुजराती में दिया था।
यानी तब तक नरेंद्र मोदी ने खुद को गुजरात तक सीमित रखा था और 2012 की जीत के बाद उन्होंने हिंदी में भाषण देकर सिर्फ गुजरात के भाजपा कार्यकर्ताओं को ही नहीं बल्कि पूरे देश को संबोधित किया था। उसके बाद से ही मोदी की राष्ट्रीय राजनीति की यात्रा शुरु हुई थी। आगे का घटनाक्रम जग जाहिर है। कुछ उसी अंदाज में अरविंद केजरीवाल ने अपने शपथग्रहण समारोह को लेकर दिए गए विज्ञापन में दिल्ली की जगह भारत का जिक्र करके अपने इरादे जाहिर कर दिए हैं कि अब वह खुद को राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी और भाजपा के विकल्प के तौर पर तैयार करने की दिशा में आगे बढ़ेंगे।
हालांकि कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे बेहद जल्दबाजी वाला निष्कर्ष मान सकते हैं, लेकिन पुरानी कहावत है कि पूत के पांव पालने में नजर आने लगते हैं। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी और उनकी राजनीति का जन्म अन्ना आंदोलन की कोख से हुआ है और यह आंदोलन सिर्फ दिल्ली को लेकर नहीं पूरे देश को लेकर था। दिल्ली का चयन आम आदमी पार्टी ने महज एक राजनीतिक प्रयोगशाला के तौर पर किया था।
बल्कि दिल्ली से पहले अन्ना आंदोलनकारियों ने हिमाचल प्रदेश को अपनी नई राजनीति की पहली प्रयोगशाला बनाना चाहा था और बाकायदा इसके लिए इस पर्वतीय प्रदेश की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक और राजनीतिक परिस्थितियों का पूरा अध्ययन भी कर लिया गया था। लेकिन तब तक नए राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी का गठन नहीं हुआ था और बताया जाता है कि खुद अन्ना हजारे, जो राजनीतिक दल के गठन और आंदोलनकारियों के राजनीति में उतरने के पक्ष में नहीं थे, ने वीटो लगाकर हिमाचल प्रदेश के प्रयोग को रोक दिया। इसके बाद ही अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने अन्ना हजारे से अलग होकर नया राजनीतिक दल बनाने का फैसला किया था।
यह अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय राजनीति की महत्वाकांक्षाएं ही थीं, कि 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित रूप से 28 सीटें जीतने और कांग्रेस के समर्थन से 49 दिन तक दिल्ली में सरकार चलाने के बाद वह अप्रैल-मई 2014 में लोकसभा चुनावों के दौरान खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से चुनाव में कूद पड़े और साथ ही देश के अनेक राज्यों में करीब चार सौ सीटों पर आम आदमी पार्टी ने अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए। लेकिन तब देश में मोदी की लोकप्रियता की आंधी थी, जिसके सामने दिल्ली में नई राजनीति का यह ताजी हवा का झोंका टिक नहीं सका और पंजाब को छोड़कर आम आदमी पार्टी कहीं भी कोई सीट जीत नहीं सकी। खुद केजरीवाल भी बुरी तरह चुनाव हार गए।
लोकसभा चुनावों में इस हार के बाद केजरीवाल और उनके साथी (तब योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार, कुमार विश्वास, आशुतोष समेत) बेहद निराश हो गए। उधर भाजपा कांग्रेस को तोड़कर अपनी सरकार बनाने के जोड़तोड़ में जुटी थी, तो आम आदमी पार्टी की तरफ से कांग्रेस नेताओं से संपर्क करके फिर से गठबंधन की कोशिश में जुट गए। लेकिन समय चक्र ऐसा घूमा कि विधानसभा भंग हुई और फरवरी 2015 में आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटें जीतकर इतिहास रच दिया। इस बार अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने अपनी राष्ट्रीय विस्तार की महत्वाकांक्षाओं को रोका तो नहीं लेकिन सीमित जरूर कर दिया।
केजरीवाल और मनीष सिसौदिया ने खुद दिल्ली पर अपना ध्यान केंद्रित किया और संजय सिंह व अन्य नेताओं को पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, गोआ आदि राज्यों में पार्टी के विस्तार का काम सौंप दिया। आप को सबसे ज्यादा समर्थन पंजाब में मिला और 2017 के विधानसभा चुनावों में आप ने यहां पूरी ताकत झोंक दी। एकबारगी तो ऐसा लगा कि कांग्रेस और अकाली दल को पछाड़कर आप पंजाब में सरकार बना लेगी, लेकिन बाद में कांग्रेस ने आप और अकाली दोनों को पछाड़ दिया।
पंजाब में सत्ता की दौड़ से बाहर होने और 2019 के लोकसभा चुनावों में दिल्ली में बुरी तरह हारने (पांच सीटों पर कांग्रेस से भी पिछड़ने) के बाद आम आदमी पार्टी ने पूरा ध्यान दिल्ली पर केंद्रित किया और आठ महीनों में उसने नई रणनीति बनाकर जो काम किए उसका नतीजा 63 सीटों की शानदार सफलता के रूप में सामने है। अन्ना आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल के करीबी रहे एक सामाजिक कार्यकर्ता के मुताबिक अरविंद केजरीवाल सिर्फ दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने या बने रहने के लिए राजनीति में नहीं आए हैं। दिल्ली उनकी यात्रा का एक पड़ाव है लक्ष्य नहीं।
उनका लक्ष्य देश की राजनीति में अपनी प्रभावशाली भूमिका स्थापित करना है और अब वह अपनी छवि और पार्टी दोनों का विस्तार दिल्ली से बाहर देश के अन्य राज्यों में करेंगे। इसका संकेत न सिर्फ अरविंद के मुख्यमंत्री पद के शपथग्रहण समारोह को लेकर दिए गए विज्ञापन की उपरोक्त पंक्तियों से मिला बल्कि शपथ ग्रहण के बाद अपने भाषण में केजरीवाल ने उन्हें बोला भी, इससे भी मिला। साथ ही केजरीवाल सरकार के वरिष्ठ मंत्री गोपाल राय की यह घोषणा कि अब अन्य राज्यों के स्थानीय निकायों के चुनावों में आप अपने उम्मीदवार खड़े करेगी, यह बताती है कि स्थानीय निकायों के जरिए आम आदमी पार्टी दिल्ली के बाहर अन्य राज्यों में जमीनी स्तर पर अपना संगठन खड़ा करेगी और प्रभाव
विस्तार करेगी।
अपने शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह अरविंद केजरीवाल ने बेहद परिपक्व और समावेशी भाषण दिया उससे भी उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने एक नए विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने की शुरुआत कर दी है। एक तरफ उन्होंने खुद को पूरी दिल्ली का मुख्यमंत्री बताते हुए आप के साथ साथ भाजपा कांग्रेस और अन्य दलों के कार्यकर्ताओं समर्थकों को आश्वस्त किया कि उनके साथ दिल्ली सरकार कोई भेदभाव नहीं होने देगी। किसी को भी जब भी कोई जरूरत हो वह सीधे मुख्यमंत्री के पास आ सकता है। दूसरी तरफ केजरीवाल ने केंद्र सरकार के साथ टकराव औ्रर मुठभेड़ की अपनी पुरानी नीति का परित्याग करते हुए साफ कहा कि दिल्ली के विकास के लिए उन्हें प्रधानमंत्री के आशीर्वाद और सहयोग की भी जरूरत होगी।
केजरीवाल ने चुनाव के दौरान टीवी चैनल पर लाइव हनुमान चालीसा का पाठ और कनाट प्लेस के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर के दर्शन करके भाजपा से उन पर हिंदू विरोधी होने का आरोप लगाने का मौका छीन लिया। जीत के बाद फिर हनुमान मंदिर जाकर उन्होंने यह जता दिया कि हिंदू धर्म और उसके देवताओं के प्रति उनकी आस्था सिर्फ चुनाव तक सीमित नहीं है। अपने भाषण की शुरुआत से पहले भारत माता की जय, इंकलाब जिंदाबाद और वंदे मातरम का उद्घोष करके अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रवाद पर भाजपा और संघ परिवार के एकाधिकार को भी चुनौती दे दी है।
कभी राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की वाहक कांग्रेस भी पिछले दो दशकों में इतने प्रभावशाली ढंग से नहीं कर पाई। गुजरात चुनाव के बाद से लगातार राहुल गांधी मंदिरों में गए। कैलाश मानसरोवर भी गए लेकिन वह और उनके रणनीतिकार यह बाद जन मानस में उतने प्रभावशाली ढंग से यह बात नहीं बिठा पाए कि कांग्रेस नेतृत्व हिंदू धर्म के प्रति वास्तव में
आस्थावान है। उनकी इस कवायद को लोगों ने चुनावी राजनीति की जरूरत ज्यादा समझा आस्था कम।
अरविंद केजरीवाल की राजनीति को अगर गौर से देखा जाए तो उनकी सबसे बड़ी ताकत है कि वह किसी भी तरह की वैचारिक जकड़न का शिकार नहीं हैं। उन्हें दक्षिण वाम मध्य जहां से जो भी ठीक लगता है, उसे अपना लेते हैं । उनके सार्वजनिक जीवन की शुरुआत सूचना अधिकार की लड़ाई से हुई और अन्ना आंदोलन के दौरान वह राष्ट्रीय क्षितिज पर चमके।तब उनके साथ एक तरह भारत माता की जय और वंदे मातरम का उद्घोष करने वाले खुद अन्ना हजारे, कुमार विश्वास और किरण बेदी जैसे चेहरे थे, तो दूसरी तरफ धुर वामपंथी प्रशांत भूषण, गोपाल राय जैसे सामाजिक कार्यकर्ता थे।
बाद में आम आदमी पार्टी जब बनी तो योगेंद्र यादव जैसे समाजवादी और आशुतोष व आशीष खेतान जैसे मध्य मार्गी वामपंथी सोच वाले लोग जुड़े। अरविंद के बेहद भरोसेमंद मनीष सिसोदिया विचारों से उदारवादी और प्रगतिशील सोच रखते हैं, लेकिन साथ ही उन्हें भारतीय संस्कृति के हिंदू प्रतीकों से भी कोई परहेज नहीं है। खुद केजरीवाल मध्यमार्गी उदारवादी हैं जो मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने लिए बनारस में गंगा भी नहाते हैं और पंजाब में पगड़ी बांधकर स्वर्ण मंदिर में मत्था भी टेकते हैं।
मोदी सरकार-एक में वह जेएनयू के आंदोलनकारी छात्रों के साथ खड़े होकर भाजपा के टुकड़े-टुकड़े गैंग का होने का आरोप झेलते हैं, लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों के दौरान जेएनयू जामिया में छात्रों पर हमले होने के बावजूद अरविंद केजरीवाल वहां नहीं जाते और न ही शाहीन बाग के धरने से खुद को जोड़ते हैं। बल्कि हनुमान भक्ति में वह भाजपा
नेताओं से आगे निकल जाते हैं। मौजूदा राजनीतिक माहौल में अरविंद केजरीवाल का किसी वैचारिक खूंटे से बंधा न होना उनकी सबसे बड़ी ताकत है। जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा औ्रर संघ की हिंदुत्ववादी विचारधारा और कांग्रेस नेता राहुल गांधी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की वैचारिक लक्षमण रेखा पार नहीं कर सकते हैं।
इसलिए अरविंद केजरीवाल ने अपनी छवि एक एसे राजनेता की बना ली है जिसे हिंदू प्रतीकों से कोई परहेज नहीं है, लेकिन मुसलमान सिख ईसाई भी उसे अपना मानते हैं। शाहीन बाग और सीएए पर चुप्पी के बावजूद दिल्ली में एक मुश्त मुस्लिम वोट लेकर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भाजपा से ज्यादा कांग्रेस के लिए संकट पैदा कर दिया है। दिल्ली में तो लोकसभा चुनावों में 22 फीसदी वोट और पिछले विधानसभा चुनावों में आठ फीसदी मत पाने वाली कांग्रेस का मत प्रतिशत घटकर महज चार फीसदी रह गया और सीटें शून्य। जबकि पिछली बार से महज पांच सीटें अधिक यानी आठ सीटें जीतने वाली भाजपा ने अपने मत प्रतिशत में करीब आठ फीसदी इजाफा किया।
इसलिए केजरीवाल की कोशिश अब देश में खासकर उन राज्यों में जहां भाजपा कांग्रेस का सीधे मुकाबला है, आप का विस्तार करके खुद को भाजपा के सामने एक मध्य मार्गी विकल्प के रूप में प्रस्तुत करना है जो कांग्रेस की अपेक्षा ज्यादा आक्रामक तरीके से भाजपा का मुकाबला कर सकता है। दिल्ली से बाहर गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे राज्यों में आप का विस्तार भाजपा के लिए नहीं कांग्रेस के लिए सिरदर्द साबित होगा और कांग्रेस नेतृत्व जिस जड़ता और दिशाहीनता का शिकार है, जिसकी वजह से कई राज्यों में उसके कार्यकर्ताओं और समर्थक वर्गों में निराशा है, से भी आप को खासा राजनीतिक खाद पानी मिल सकता है।
सवाल है कि क्या अरविंद केजरीवाल फौरन ही अपना देशव्यापी अभियान शुरू कर देंगे। केजरीवाल इतने सधे और परिपक्व राजनेता हो चुके हैं, कि वह पिछली गलती नहीं दोहराएंगे। वह 2014 के दूध से जल चुके हैं,इसलिए 2024 के छाछ को भी फूंक फूंक कर पिएंगे। पिछली सरकार की तरह केजरीवाल खुद अपने पास कोई विभाग नहीं रखेंगे। दिल्ली के विकास और किए गए वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी संबंधित मंत्रियों के पास होगी। पार्टी के नेता अन्य राज्यों में दल के विस्तार का काम करेंगे। स्थानीय निकाय के चुनावों से पार्टी अपना जमीनी जनाधार और कार्यकर्ता तैयार करेगी।
लगभग दो साल तक केजरीवाल खुद को ज्यादातर दिल्ली में ही केंद्रित रखेंगे। प्रधानमंत्री और केंद्र सरकार से तालमेल की पूरी कोशिश करेंगे। आप और केजरीवाल की पहली अग्निपरीक्षा 2022 में पंजाब में होगी, जहां पार्टी पूरी ताकत झोंकेगी और कांग्रेस की जड़ता और अकाली दल की फूट का पूरा फायदा उठाकर अपनी सरकार बनाने की कोशिश करेगी। इस प्रयोग में पंजाब के साथ गोआ और उत्तराखंड भी शामिल हो सकता है। इन राज्यों के नतीजों के बाद तय होगा कि अरविंद केजरीवाल किस हद तक राष्ट्रीय राजनीति में उतरेंगे।
अगर इन राज्यों में पार्टी को एक या दो राज्यों में भी कामयाबी मिल गई तो उसके बाद अरविंद खुद को देश में मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की वैसी ही कवायद शुरू कर सकते हैं, जैसी कि २०१२ में गुजरात चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी ने शुरू की थी।वह युवाओं, छात्रों, सामाजिक संस्थाओं, व्यापारिक और वाणिज्यिक संगठनों, महिला संगठनों, बार एसोसिएशनों आदि के कार्यक्रमों के जरिए देश के विकास को लेकर अपना नजरिया और वैचारिक खाका प्रस्तुत करते हुए आगे बढ़ेगें। अगर 2022 में आप को पंजाब, गोआ, उत्तराखंड जैसे राज्यों में अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली तो अरविंद केजरीवाल अपनी राष्ट्रीय राजनीति की यात्रा 2024 से आगे के लिए भी टाल सकते हैं।
समय सीमा क्या हो इसका फैसला आगे की परिस्थितियों को देखकर खुद अरविंद तय करेंगे। लेकिन देर-सबेर उन्हें राष्ट्रीय राजनीतिक पटल पर खुद को लाने का उनका इरादा अटल है। एक सवाल है कि क्या अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, एम.के.स्टालिन, मायावती, चंद्रबाबू नायडू, वाम दल, लालू यादव, नवीन पटनायक, उद्धव ठाकरे, शरद पवार,
जगनमोहन रेड्डी, चंद्रशेखर राव जैसे क्षत्रप अरविंद केजरीवाल को अपना नेता मानेंगे। इसके जवाब में आप के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि जब राजीव गांधी से बगावत करके विश्वनाथ प्रताप सिंह बाहर निकले थे तो उनकी राजनीतिक हैसियत एक बागी केंद्रीय मंत्री की ही थी।
न उनके पास दल था न संगठन न कार्यकर्ता। लेकिन उन्होंने उच्च स्तर पर भ्रष्टाचार का जो मुद्दा उठाया तो पूरा देश उनके साथ खड़ा हो गया और उसका नतीजा हुआ कि उस जमाने के क्षत्रप देवीलाल, एनटी रामराव, रामकृष्ण हेगड़े, बीजू पटनायक, एम.करुणानिधि, एच. डी. देवेगौड़ा, ज्योति बसु आदि ने उन्हें नेता माना और भाजपा व वाम मोर्चे जैसे दो
धुर विरोधी राजनीतिक दलों ने अपना समर्थन दिया। अटल बिहारी वाजपेयी, चंद्रशेखर, लाल कृष्ण आडवाणी जैसे दिग्गज नेता भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम पर मान गए। इस आप नेता का कहना था कि लोग व्यक्ति के साथ नहीं मुद्दे के साथ जुड़ते हैं।
जब अन्ना हजारे दिल्ली में ध्ररना देने आए थे तब उन्हें और अरविंद केजरीवाल को कितने लोग जानते थे। लेकिन मुद्दा एसा था कि पूरा देश खड़ा हो गया। इस तरह अरविंद केजरीवाल अगले पांच साल दिल्ली में विकास का एक नया मॉडल तैयार करेंगे और उसे उसी तरह देश के सामने प्रस्तुत करेंगे जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी ने गुजरात मॉडल को पेश किया था। लेकिन यह सब इस बात पर भी निर्भर करेगा कि नरेंद्र मोदी और उनकी अगुआई में भाजपा और राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस किस तरह से अपना काम करते हैं।
क्योंकि केजरीवाल की चुनौती अगर राज्यों से कांग्रेस को समेटने की है तो केंद्र की सत्ता से मोदी और भाजपा को बेदखल करने की भी है। क्या ये दोनों ऐसा आसानी से होने देंगे, यह एक बड़ा यक्ष प्रश्न भी है और केजरीवाल के सामने चुनौती भी होगी। इसलिए अरविंद केजरीवाल की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं के रथ के सामने मंजिल तो है, लेकिन रास्ता बेहद जटिल है यानी डगर कठिन है पनघट की।