दशकों बाद बिहार के चुनाव में आरक्षण की प्रतिध्वनि पड़ी ठंडी, 2015 में बना था विषय

 बिहार में अंतिम चरण के चुनाव प्रचार में अब केवल दो दिन ही रह गए हैं और हर चुनाव में सुनाई देने वाली आरक्षण के मुद्दे की गूंज किसी सियासी कोने से नहीं आयी है। सूबे में बीते तीन दशक में संभवत: यह पहला चुनाव है जब राजनीतिक पार्टियों को आरक्षण के मुद्दे पर मतदाताओं को लुभाने की गुंजाइश नहीं दिखी। नौकरी-रोजगार और विकास से लेकर कानून व्यवस्था के मुद्दों ने चुनावी अभियान को गरमी दी और आरक्षण का मुद्दा सियासी रुप से ठंडा ही रहा है। सूबे के चुनाव प्रचार अभियान के तहत कुछ सियासी दिग्गजों ने चलते-चलते आरक्षण के मसले का जिक्र जरूर किया मगर इसे चुनावी मुद्दा बनाते नहीं दिखे।

मसलन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सासाराम और पटना की अपनी रैलियों में आरक्षण के मुद्दे की चर्चा की लेकिन आरक्षण की मौजूदा प्रकृति में किसी तरह के बदलाव जैसी कोई बता नहीं की। अनुसूचित जाति व जनजाति के आरक्षण की अवधि 10 साल के लिए और बढ़ाए जाने के केंद्र के कदम के साथ अगड़ी जाति के आर्थिक रुप से कमजोर लोगों को 2019 के लोकसभा चुनाव से पूर्व दिए गए आरक्षण का उल्लेख भर किया।

इसी तरह नीतीश कुमार ने बाल्मिकीनगर की एक सभा में जनसंख्या के हिसाब से आरक्षण की व्यवस्था का प्रावधान किए जाने के विकल्प से सहमत होने की बात कही। नीतीश की यह बात सियासी तूल न पकड़े इसलिए भाजपा की ओर से रविशंकर प्रसाद ने तत्काल ही साफ कर दिया कि आरक्षण की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के स्वरूप में कोई बदलाव नहीं होगा।

काबिले गौर है कि बीते तीन दशक से आरक्षण पर आक्रामक सियासत की पैरोकार रही राजद ने मौजूदा चुनाव में इस मुद्दे की सूची में रखना भी गवारा नहीं समझा। नौकरी और विकास के मुद्दे से राजद के चुनाव अभियान को मिले टॉनिक को देखते हुए तेजस्वी यादव ने शायद इसकी सियासी जरूरत महसूस नहीं की है। जबकि बिहार की राजनीति में 1990 में मंडल आयोग के सबसे मुखर चेहरे के रुप में उभरे लालू प्रसाद ने 2005 तक सूबे में आरक्षण के सहारे सामाजिक गोलबंदी की सियासत को आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाया। 27 फीसद ओबीसी आरक्षण लागू होने के शुरूआती दौर से नीतीश कुमार के उदय तक लालू ने पिछड़ी जातियों को न केवल एकजुट किया बल्कि उन्हें सूबे में सियासत की सबसे मुखर आवाज बनाया।

लालू ने पहले जनता दल और फिर राष्ट्रीय जनता दल के जरिए 1990 के बाद 1995 और 2000 के चुनाव में भी आरक्षण को अपने राजनीतिक रथ की धूरी बनाए रखी। वहीं राजद की 15 साल की सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर 2005 में सत्ता में आए नीतीश कुमार ने भी आरक्षण की सियासत से वोट जुटाने की लालू की ताकत को इसी हथियार से मात दी। नीतीश ने पहली बार सत्ता में आने के बाद अगली पारी पर दांव लगाते हुए पंचायतों और स्थानीय निकायों की 50 फीसद सीटें ओबीसी, इबीसी और एससी वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिया। नीतीश के आरक्षण का यह दांव इतना बड़ा था कि इसकी आंधी में 2010 के चुनाव में राजद की गिल्लियां उखड़ गई।

इतना ही नहीं नीतीश ने मुस्लिम वर्ग के पसमांदा समाज को ओबीसी आरक्षण के दायरे में शामिल कर राजद के इस मजबूत आधार में सेंध लगा दी। जबकि दलित समुदाय में भी महादलित की श्रेणी बना आरक्षण का दोहरा दांव खेला। आरक्षण के दांव से सत्ता की सीढ़ी आसान होने के सफल फार्मूले के तहत ही नीतीश ने 2010 में ही पंचायतों और स्थानीय निकायों में पिछड़ा व अत्यंत पिछड़ा वर्ग के लिए 20 फीसद आरक्षण का प्रावधान कर दिया। हालांकि 2015 के विधानसभा चुनाव में जब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण की व्यवस्था की समीक्षा करने के विचार पर सियासी संग्राम हुआ तब नीतीश महागठबंधन का हिस्सा थे। संघ प्रमुख के बयान को लालू ने आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने की साजिश के तौर पर इस कदर मुद्दा बनाया कि इसकी तपिश से भाजपा चुनाव में उबर नहीं पायी। जाहिर तौर पर सूबे की चुनावी सियासत में बीते करीब तीन दशक में 2020 का चुनाव पहला ऐसा चुनाव है जब आरक्षण के मुद्दे की गूंज सुनाई नहीं दे रही। 

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