तर्पण का महत्व :- पितृपक्ष अपने पूर्वजों के नमन-स्मरण का सुअवसर

वैदिक परंपरा के अनुसार, व्यक्ति का जीवन तभी सार्थक होता है, जब वह अपने माता-पिता की उनके जीवन-काल में उनकी सेवा करे तथा उनके मृत्योपरांत पितृपक्ष में उनका श्रद्धासहित श्राद्धकर्म करे…पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का पुनीत अवसर है। ऐसी मान्यता है कि पितृपक्ष की प्रतीक्षा हम सबके पूर्वज वर्ष भर करते हैं। वे दक्षिण दिशा से अपनी मृत्यु- तिथि पर अपने घर के दरवाजे पर जाते हैं और संतति की अपने प्रति श्रद्धा-भावना से अभिभूत होकर उन्हें आशीर्वाद देते हैं। शास्त्रों में श्राद्ध के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख है, जिन्हें अलग-अलग अवसरों व स्थान पर संपन्न करने का विधान है।

महर्षि याज्ञवल्क्य के कथनानुसार, श्राद्ध तीन प्रकार का होता है, नित्य श्राद्ध, नौमित्तिक श्राद्ध और विशेष श्राद्ध। ये विभिन्न अवसरों पर किए जाते हैं। जैसे अपनी परंपरा के अनुसार, प्रतिदिन तर्पण करना और भोजन के पहले गौ-ग्रास निकालना नित्य श्राद्ध कहलाता है। नौमित्तिक या निमित्त श्राद्ध किसी विशेष अवसर पर किया जाता है, यह पांच प्रकार का होता है। मुंडन, जनेऊ, विवाह आदि संस्कारों के अवसर पर किया जाने वाला नंदीमुखादि श्राद्धों को विशेष श्राद्ध कहते हैं।

श्राद्ध के शास्त्रीय नियम : पितृपक्ष में माता-पिता, दादादादी, परदादा-परदादी आदि का श्राद्ध किया जाता है। पितृपक्ष में सामान्यतया जिस पूर्वज की जिस तिथि को मृत्यु हुई हो, उसका श्राद्ध पितृपक्ष की उसी तिथि को किया जाता है। इस विषय में कुछ अतिरिक्त नियम भी मनीषियों ने बनाए हैं, जैसे विवाहिता स्त्री की मृत्यु किसी भी तिथि को हुई हो, उसका श्राद्ध नवमी को ही करना चाहिए। अकाल मृत्यु होने पर मृतक का श्राद्ध पितृपक्ष की चतुर्दशी को करना ठीक होता है। कोई पूर्वज संन्यासी या वनगामी हो गए हों तो उनका श्राद्ध मृत्यु तिथि के बजाय द्वादशी को करना चाहिए। जिनकी मृत्यु की तिथि का पता न हो या किसी वजह से श्राद्ध छूट गया हो उनका श्राद्ध पितृपक्ष की अमावस्या को करना चाहिए।

महिलाएं भी कर सकती हैं श्राद्ध : कुछ अपरिहार्य परिस्थितियों में महिलाएं भी श्राद्ध कर्म संपन्न करने का अधिकारिणी हैं। ‘श्राद्ध कल्पलता’ के अनुसार, श्राद्ध के अधिकारी पुत्र, पौत्र, पत्नी, भाई, भतीजा, पिता, माता, पुत्रवधू, बहन, भांजा आदि हैं। ‘गरुण पुराण’ के अनुसार, विवाहित महिला न केवल अपने सासससुर, जेठ-जेठानी का श्राद्ध कर सकती है, बल्कि वह अपने माता-पिता का भी श्राद्ध कर सकती है। पति या पुत्र के बीमार होने या उनकी अनुपस्थिति में महिला श्राद्ध-कर्म कर सकती है। हां, इन शास्त्रों में कुश-तिल के साथ तर्पण करने की महिलाओं को मनाही है।

गया जी का विशेष महत्व : पितृपक्ष में बिहार के धार्मिक स्थान गया का विशेष महत्व है। माना जाता है कि घर में श्राद्ध करने से पितरों को तृप्ति और गया जी के गायत्रीघाट या पुनपुन नदी के किनारे श्राद्ध करने से उन्हें मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि यहां प्रथम पिंडदान ब्रह्मा जी ने किया था। अमावस्या को अक्षयवट के नीचे श्राद्ध कराकर तथा गायत्रीघाट पर दही और अक्षत (चावल) का पिंडदान देकर गया श्राद्ध का समापन होता है। जो गया नहीं पहुंच पाते, वे कुरुक्षेत्र के पिहोवा, गंगासागर, हरिद्वार और अयोध्या धाम जाकर श्राद्ध संपादित करते हैं।

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