एक तरफ जहां सरकार ने ‘टीबी मुक्त भारत’ का अभियान छेड़ रखा है, वहीं दवाओं का संकट बीमारी के निदान में बाधा बन रहा है। ऐसे में मरीजों में दवा ब्रेक होने से ड्रग रजिस्टेंस का खतरा बढ़ रहा है। लिहाजा, वे बाजार से महंगी दर पर दवाएं खरीदने के लिए मजबूर हैं। राज्य में टीबी के पांच लाख 21 हजार मरीज पंजीकृत हैं। वहीं, मल्टी ड्रग रजिस्टेंस (एमडीआर) के 17 हजार पांच सौ रोगी हैं। साथ ही एक हजार एक्सडीआर श्रेणी के मरीज हैं। ऐसे ही लखनऊ जनपद में छह हजार 500 रोगी हैं। वहीं, 60 एमडीआर रोगी पंजीकृत हैं। खासकर, एमडीआर रोगियों की दवाओं का संकट है। वे डॉट्स सेंटरों से लेकर टीबी यूनिट तक भटकने के लिए मजबूर हैं, मगर उन्हें दवाओं का पूरा कोर्स नहीं मिल पा रहा है। मरीजों को एक-दो दवाएं देकर टरकाया जा रहा है। ऐसे में मरीजों को मेडिकल स्टोर से दवाएं खरीदनी पड़ रही हैं।
इन दवाओं की है किल्लत
एमडीआर टीबी मरीजों पर प्रथम श्रेणी की दवाएं बेअसर हो चुकी होती हैं। वहीं, दूसरी श्रेणी की दवाओं में ब्रेक होने से जिंदगी दांव पर होती है। मरीजों को लिवोफ्लॉक्सासिन डॉट्स सेंटर से लेकर टीबी यूनिट तक नहीं मिल रही है। इसके अलावा साइक्लोसिरिन, इफयोनामाइट, क्लोफासिमिन आदि दवाओं का कई सेंटरों पर संकट है। स्थिति ये है कि आठ से नौ दवाओं में से सेंटरों पर कहीं दो तो कहीं तीन ही उपलब्ध हैं।
क्या कहते हैं जिम्मेदार ?
- जिला क्षय रोग नियंत्रण अधिकारी डॉ. बीके सिंह का कहना है कि टीबी की कुछ दवाओं की आपूर्ति प्रभावित हो गई थी। अब सभी आ गई हैं, जिन केंद्रों पर नहीं है, वहां उपलब्ध करा दी जाएंगी।
- राज्य क्षय नियंत्रण अधिकारी डॉ. संतोष कुमार गुप्ता का कहना है कि टीबी की सभी दवाएं स्टॉक में उपलब्ध हैं। जनपदों में दवाओं की उपलब्धता बरकरार रखने की जिम्मेदारी जिला क्षय रोग अधिकारी की है। मैं उन्हें दवा उपलब्ध कराने का निर्देश दूंगा।