हमारे शहर जब से विकास की अंधी दौड़ में शामिल हुए, तभी से उनमें जलप्लावन की स्थिति लगातार सामने आती रही है। शहरों में ड्रेनेज प्रबंधन अतिरिक्त अपशिष्ट जल के लिए अपर्याप्त साबित हो रहे हैं। यह पानी के तेज बहाव की निकासी के लिए सक्षम नहीं हैं। भारत के शहरों का आकार अलग-अलग है तो यहां पर होने वाली बारिश की मात्रा भी अलगअलग है। यहां तक कि एक ही शहर के दो इलाकों में भी बारिश का असमान वितरण होता है। जून से सितंबर के चार महीनों में करीब 75 फीसद ( चेन्नई को छोड़कर जहां पर उत्तरी-पूर्वी मानसून से अक्टूबर और जनवरी के मध्य) बारिश होती है।
मुंबई जैसे शहर में गंभीर बाढ़ उस वक्त आती है जब भारी बारिश से तीन घंटे पहले हाइटाइड आता है। दो सालों में यह स्थिति एक बार आती है, जब परिवहन प्रणाली में खलल पैदा होता है और व्यावसायिक गतिविधियां ठहर जाती हैं। प्रत्येक बाढ़ के कारण करीब 50 लाख डॉलर ( 36.62 करोड़ रुपये) का नुकसान होता है। बढ़ते शहरीकरण और जनसंख्या के दबाव के कारण महानगरों का दायरा बढ़ता जा रहा है, जिससे तूफानी जलप्रवाह की मात्रा में भी इजाफा हो रहा है। बहाव के रास्ते में निर्माण से उसे अवरुद्ध किया जा रहा है।
शहरों के निचले इलाकों में नए निर्माण ने जलस्नोतों को खत्म किया है। शहरों में खाली जगह मिलती ही नहीं है, जिससे पानी की निकासी हो सके। इन जगहों पर अच्छी सीवरेज प्रणाली भी मौजूद नहीं है। ज्यादातर शहरों में जल निकासी व्यवस्था, पानी की सप्लाई के विकास से पिछड़ गई है। इसके लिए न तो योजना बनाई गई है और न ही इन्हें लागू किया गया है। उदाहरण के लिए चेन्नई में मौजूद जल निकासी प्रणाली की क्षमता अपर्याप्त है।
उस पर खुले ड्रेनेज मानसून के दौरान बाढ़ वाहक का कार्य करते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (एनडीएमए) गाइडलाइन के अनुसार, नालों की सफाई 31 मार्च तक हो जानी चाहिए। मुंबई में 2005 की बाढ़ के बाद तीन सालों तक इस पर सख्ती से अमल किया गया था, जिसके बाद वहां उस दौरान बाढ़ जैसी स्थिति से नहीं जूझना पड़ा। दूसरी ओर शहरों में बाढ़ आने का दूसरा और महत्वपूर्ण कारण बांधों से छोड़ा जाने वाला पानी है। बांधों से पानी उस वक्त छोड़ा जाता है जब वे लगभग भराव बिंदु तक पहुंच जाते हैं। जबकि गाइडलाइन में साफ लिखा है कि बांधों में बाढ़ के पानी के लिए 20 फीसद जगह खाली रखनी चाहिए। हालांकि बिजली और कृषि के पानी के लिए इस पर अमल नहीं किया जाता है। बांधों के लिए एक कमेटी का गठन होना चाहिए, जिसमें तकनीकी विशेषज्ञ भी होने चाहिए। जिससे मानसून के वक्त उनके सुझावों पर बांधों के गेट सही समय पर खोले जा सकें।
इसके साथ ही बड़े शहरों में अतिक्रमण के चलते खुले नालों और नालियों के किनारों को उनकी मूल चौड़ाई के 20 फीसद के बराबर कम कर दिया गया है। अधिकांश जल निकासी किनारों पर स्थानीय नेताओं के आशीर्वाद से लोग बस गए हैं। बाढ़ का पानी जिन मैदानों में पहुंचता था, अब वहां भी इमारतें बन गई हैं। सीवर लाइनों को साफ करने के लिए विभिन्न शहरों में निजी ठेकेदार सामने आते हैं, जिनके पास अनुभव की कमी और सफाई के लिए सीमित संसाधन होते हैं। जिसके कारण नालों में मौजूद कीचड़ और मिट्टी को पूरी तरह से निकाल पाना संभव ही नहीं हो पाता है और यह मानसूनी बारिश के दौरान पानी की तेजी से निकासी करने में सक्षम नहीं होते हैं।
शहरों में बड़ी जनसंख्या रहती है और यही कारण है शहरों की बाढ़ व्यापक जनसंख्या को प्रभावित करती है। 2005 में मुंबई की बाढ़ के बाद बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) को ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन लगाने का सुझाव दिया गया था, जिससे जल्द चेतावनी दी जा सके। जिसके बाद मुंबई में अलग-अलग जगहों पर 60 ऑटोमेटिक वेदर स्टेशन लगाए गए हैं। यह बारिश के साथ ही आद्र्रता और तापमान के बारे में भी जानकारी देते हैं। सेटेलाइट मैप्स और रडार के जरिये हम बारिश का अनुमान 3 घंटे पहले तक बहुत ही सटीकता से लगा सकते हैं।
यूरोप में डॉकलावेदा रडार के जरिये बारिश का 15 मिनट पहले भी पूर्वानुमान दे देते हैं। हमें भी अपनी पूर्वानुमान प्रणाली को मजबूत करना होगा। यह वक्त की मांग है कि हमें ऐसे योजनाकर्ता चाहिए जो कि एकीकृत योजना को लेकर आगे बढ़ें। जिसमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश हो। साथ ही यह डाटा के साथ ही पानी की आर्पूित, अपशिष्ट के निपटान और ठोस कचरा प्रबंधन की रणनीति से शहरी नियोजन प्रक्रिया को जोड़े। तभी हम शहर के निवासियों को बेहतर जीवन दे सकेंगे।