स्वामी रामतीर्थ का नियम था कि वह स्नान और पूजा-पाठ से निवृत्त होने के बाद भिक्षाटन के लिए सिर्फ 5 घरों में जाते थे और वहां से कुछ न कुछ लेकर ही लौटते थे।
एकबार जब वे भिक्षाटन के लिए निकले और एक घर के सामने जाकर आवाज लगाई तो गृहस्वामिनी गुस्से में चिल्लाकर बाहर आई और बोली, ‘तुम लोगों को भीख मांगने के अलावा कोई और काम नहीं है क्या?’ स्वामीजी हंसकर बोले, ‘माताजी! मैं खाली हाथ किसी के भी द्वार से वापस नहीं जाता हूं। कुछ न कुछ तो लूंगा ही।’ गृहस्वामिनी चौका लीप रही थी। उसने वहीं कपड़ा उनकी झोली में डालते हुए कहा कि, ‘यह ले यह कपड़ा और मुंह काला कर यहां से।’
स्वामीजी ने वहां से नदी पर गए और पोछे के कपड़े को साफ कर उसकी बत्तियां बना ली। इधर उस स्त्री को भी पश्चाताप होने लगा। वह तुरंत देवालय पहुंची और स्वामी रामतीर्थ से उसने माफी मांगी।
रामदासजी महिला से बोले, ‘देवी! तुमने उचित भिक्षा दी थी। तुम्हारी भिक्षा का ही प्रताप है कि यह देवालय प्रज्वलित हो रहा है। तुम्हारा दिया हुआ भोजन तो तुरंत खत्म हो जाता।’