ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) प्रोजेक्ट के अनुसार सीओपीडी दुनिया भर में मौत का तीसरा प्रमुख कारण है।

वायु प्रदूषण के खतरों के प्रति आगाह करते हुए एक अध्ययन में यह बताया गया है कि घर और दफ्तरों से बाहर प्रदूषित हवा (आउटडोर पल्यूशन) के संपर्क में आने से फेफड़ों की कार्यक्षमता में तो कमी आती ही है। साथ ही क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) विकसित होने का खतरा बढ़ जाता है। सीओपीडी फेफड़ों के कार्य से जुड़ी एक बीमारी है, जिसका असर लंबी अवधि के बाद भी जारी रहता है। इसके कारण फेफड़ों में सूजन और वायुमार्ग के सिकुड़ जाता है, जिससे सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यह दावा शोधकर्ताओं ने तीन लाख लोगों के फेफड़ों की जांच कर किया है।

ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज (जीबीडी) प्रोजेक्ट के अनुसार, सीओपीडी दुनिया भर में मौत का तीसरा प्रमुख कारण है, और अंदेशा है कि अगले दस वर्षो में सीओपीडी से होने वाली मौतों की संख्या वैश्विक रूप से बढ़ सकती है। उम्र बढ़ने के साथ सामान्यत: फेफड़े संबंधी विकार भी पनपते हैं, लेकिन स्वास्थ्य पत्रिका ‘यूरोपियन रेस्पिरेट्री’ में प्रकाशित अध्ययन में बताया गया है कि वायु प्रदूषण के कारण ये विकार कम उम्र में भी जकड़ लेते हैं और व्यक्ति बीमारियों से घिर जाता है। ब्रिटेन की लीस्टर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर एना हैंसेल ने कहा कि अब तक केवल कुछ ही अध्ययन प्रकाशित हुए हैं जो यह बताते हैं कि वायु प्रदूषण फेफड़ों के स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करता है। इस अध्यन के लिए शोधकर्ताओं ने प्रदूषण के स्तर का अनुमान लगाने के लिए एक विशेष वायु प्रदूषण मॉडल का उपयोग किया।

इसके जरिए ब्रिटेन में लोगों को उनके घरों में प्रदूषण के कारण होने वाले स्वास्थ्य समस्याओं का पता भी लगाया गया था। बाद में इसे बायोबैंक के अध्ययन में भी शामिल किया गया था। इस दौरान शोधकर्ताओं ने हवा में घुले पार्टिकुलेट मैटर (पीएम10), फाइन पार्टिकुलेट मैटर (पीएम2.5) और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (एनओ 2) की जांच की। ये प्रदूषक पेट्रोल वाहनों के साथ-साथ बिजली संयंत्रों और औद्योगिक उत्सर्जन से उत्पन्न होते हैं। शोधकर्ताओं ने इसके बाद परीक्षण कर यह पता लगाया कि वायुमंडल में प्रदूषकों के उच्च स्तर होने पर वह प्रतिभागियों के फेफड़ों के काम को कैसे प्रभावित करता है।

इस दौरान उन्होंने प्रतिभागियों की उम्र, लिंग, बॉडी मास इंडेक्स (बीएमआई), घरेलू आय, शिक्षा का स्तर, धूम्रपान की स्थिति आदि का विश्लेषण किया गया। इस दौरान शोधकर्ताऔं ने पाया कि सीओपीडी के जोखिमों के लिए यह देखना जरूरी है कि लोग क्या काम करते हैं।

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