भारतीय संगीत के इतिहास में मध्य प्रदेश का योगदान अतुलनीय है 1956 में मध्य प्रदेश का गठन हुआ तो विभिन्न देसी रियासतों की बहुत समृद्ध संगीत की परंपरा रही है, जो मध्य प्रदेश में शामिल हुई। अलग-अलग रियासतों की अलग-अलग संगीत शैली हुआ करती थी।
ग्वालियर शास्त्रीय संगीत का गढ़ बना
ग्वालियर भारतीय संगीत का ऐतिहासिक केंद्र रहा है। यह ध्रुपद गायन की जन्मस्थली माना जाता है। मध्य कालीन राजा मानसिंह तोमर के काल में संगीत के क्षेत्र में विशेष ध्यान दिया गया। ग्वालियर को तानसेन और ध्रुपद गायन शैली की जन्म स्थली माना जाता है। बाबा हरिदास, मोहम्मद गौसे का ग्वालियर से नाता रहा है। ग्वालियर में ख्याल और ध्रुपद के हद्दू खां और नाथू खां ने ख्याल शैली विकसित की, फिर इस कड़ी में कई नाम जुड़ते गए। बाद में उस्ताद अमजद अली खान ने यह परंपरा जारी रखी राज्य का सबसे पुराना माधव संगीत विद्यालय 1918 में आरंभ हुआ था, ग्वालियर में हर साल होने वाला तानसेन समारोह देशभर में प्रसिद्ध है।
मालवा में गूंजती थी स्वलहरियां
इंदौर होलकर रियासत समय से संगीत व संगीतकारों को संरक्षण देने में प्रमुख रहा है। संपूर्ण मालवा क्षेत्र में रानी रूपमती की स्वर लहरियों का जादू यहां के शासकों पर बरकरार रहा। होलकर महाराजा तुकोजीराव के दरबार में प्रति वर्ष रंग पंचमी और गुड़ी पड़वा पर संगीत सभा का आयोजन होता था। मृदंगाचार्य नाना साहब पानसे, बीन वादक मुराद खां दरबार में लंबे समय तक जुड़े रहे। मृदंग वादकों में पानसे घराने के गोविंदराम राजवैद्य से मृदंग सीखना अनिवार्य था। ध्रुपद-धमार गायक बेहराम खां इंदौर के निवासी थे। जाकिरुद्दीन खां, नसीरुद्दीन खां से लेकर डागर बंधुओं तक बेहराम खां ने संगीत जगत की अनमोल सेवा की। प्रसिद्ध ध्रुपद गायक केशव नारायण आप्टे, मृदंग वादक सखाराम पंत, हारमोनियम वादक माधव राव चौगुले की प्रसिद्धि थी।
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