2 जून, 1975 की सुबह इंदिरा गांधी के वरिष्ठ निजी सचिव एनके सेशन एक सफदरजंग रोड पर प्रधानमंत्री निवास के अपने छोटे से दफ्तर में टेलिप्रिंटर से आने वाली हर खबर पर नजर रखे हुए थे। उनको इंतजार था इलाहाबाद से आने वाली एक बड़ी खबर का और वो काफी नर्वस थे। ठीक 9 बजकर 55 मिनट पर जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के कमरा नंबर 24 में प्रवेश किया। जैसे ही दुबले पतले 55 वर्षीय, जस्टिस सिन्हा ने अपना आसन ग्रहण किया, उनके पेशकार ने घोषणा की, “भाइयों और बहनों, राजनारायण की याचिका पर जब जज साहब फैसला सुनाएं तो कोई ताली नहीं बजाएगा।”
आखिर दम तक झुके नहीं जस्टिस सिन्हा
जस्टिस सिन्हा के सामने उनका 255 पन्नों का दस्तावेज रखा हुआ था, जिस पर उनका फैसला लिखा हुआ था। जस्टिस सिन्हा ने कहा, “मैं इस केस से जुड़े हुए सभी मुद्दों पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ, उन्हें पढ़ूंगा।” वो कुछ पलों के लिए ठिठके और फिर बोले, “याचिका स्वीकृत की जाती है।” अदालत में मौजूद भीड़ को सहसा विश्वास नहीं हुआ कि वो क्या सुन रही है। कुछ सेकंड बाद पूरी अदालत में तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। सभी रिपोर्टर्स अपने संपादकों से संपर्क करने बाहर दौड़े। वहाँ से 600 किलोमीटर दूर दिल्ली में जब एनके सेशन ने ये फ्लैश टेलिप्रिंटर पर पढ़ा तो उनका मुंह पीला पड़ गया।
सबसे पहले राजीव गांधी ने सुनाई अपनी मां को यह खबर
उसमें लिखा था, “मिसेज गाँधी अनसीटेड।” उन्होंने टेलिप्रिंटर मशीन से पन्ना फाड़ा और उस कमरे की ओर दौड़े जहाँ इंदिरा गाँधी बैठी हुई थीं। इंदिरा गाँधी के जीवनीकार प्रणय गुप्ते अपनी किताब ‘मदर इंडिया’ में लिखते हैं, “सेशन जब वहाँ पहुंचे तो राजीव गांधी, इंदिरा के कमरे के बाहर खड़े थे। उन्होंने यूएनआई पर आया वो फ्लैश राजीव को पकड़ा दिया। राजीव गांधी पहले शख्स थे जिन्होंने ये खबर सबसे पहले इंदिरा गाँधी को सुनाई।” 1971 में रायबरेली सीट से चुनाव हारने के बाद राजनारायण ने उन्हें हाई कोर्ट में चुनौती दी थी।
सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग में इंदिरा दोषी पाई गईं
जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को दो मुद्दों पर चुनाव में अनुचित साधन अपनाने का दोषी पाया। पहला तो ये कि इंदिरा गांधी के सचिवालय में काम करने वाले यशपाल कपूर को उनका चुनाव एजेंट बनाया गया जबकि वो अभी भी सरकारी अफसर थे। उन्होंने 7 जनवरी से इंदिरा गांधी के लिए चुनाव प्रचार करना शुरू कर दिया जबकि 13 जनवरी को उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया जिसे अंतत: 25 जनवरी को स्वीकार किया गया।
जस्टिस सिन्हा ने एक और आरोप में इंदिरा गांधी को दोषी पाया, वो था अपनी चुनाव सभाओं के मंच बनवाने में उत्तर प्रदेश के अधिकारियों की मदद लेना। इन अधिकारियों ने कथित रूप से उन सभाओं के लिए सरकारी खर्चे पर लाउड स्पीकरों और शामियानों की व्यवस्था कराई।हांलाकि बाद में लंदन के ‘द टाइम्स’ अखबार ने टिप्पणी की, “ये फैसला उसी तरह का था जैसे प्रधानमंत्री को ट्रैफिक नियम के उल्लंघन करने के लिए उनके पद से बर्खास्त कर दिया जाए।”
जस्टिस सिन्हा ने सबको किया हैरान
उस मुकदमें में राज नारायण के वकील रहे शाँति भूषण अपनी आत्मकथा ‘कोर्टिंग डेस्टिनी’ में लिखते हैं, “जब मैंने बहस शुरू की तो मुझे लगा कि जज इस मुकदमें को कोई खास महत्व नहीं दे रहे हैं। लेकिन तीसरे दिन के बाद से मैंने नोट किया कि उन पर मेरी दलीलों का असर होने लगा है और वो नोट्स लेने लगे हैं।”
अपना फैसला सुनाने से पहले उन्होंने अपने निजी सचिव मन्ना लाल से कहा, “मैं नहीं चाहता कि आप ये फैसला सुनाने से पहले किसी को इसकी भनक भी लगने दे, यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी नहीं। ये एक बड़ी जिम्मेदारी है। क्या आप इसे उठाने के लिए तैयार हैं?” निजी सचिव ने जस्टिस सिन्हा को भरोसा दिलवाया कि वो इस बारे में आश्वस्त रहें।
‘इंदिरा गांधी ने जस्टिस सिन्हा पर बनवाया था दबाव’
इस मुकदमे में राजनारायण के वकील शाँति भूषण के बेटे प्रशांत भूषण अपनी किताब ‘द केस दैट शुक इंडिया’ में लिखते हैं, “सिन्हा अपना फैसला सुकून के माहौल में लिखना चाहते थे। लेकिन जैसे ही अदालत बंद हुई, उनके यहाँ इलाहाबाद के एक कांग्रेस संसद सदस्य रोज रोज आने लगे।”
उन्होंने लिखा है, ”इस पर सिन्हा बहुत नाराज हुए और उन्हें उनसे कहना पड़ा कि वो उनके यहाँ न आएं। लेकिन जब वो इस पर भी नहीं माने तो सिन्हा ने अपने पड़ोसी जस्टिस पारिख से कहा कि वो उन साहब को समझाएं कि वो उन्हें परेशान न करें।”
जस्टिस सिन्हा अपने घर से गायब हो गए
प्रशांत भूषण ने लिखा है, ”जब इसका भी कोई असर नहीं हुआ तो सिन्हा अपने ही घर में ‘गायब’ हो गए और कई दिनों तक अपने घर के बरामदे तक में नहीं देखे गए। उनके यहाँ आने वाले हर शख्स से कहा गया कि वो उज्जैन गए हुए हैं जहाँ उनके भाई रहा करते थे।” उन्होंने लिखा है, ”इस बीच उन्होंने एक फोन कॉल तक नहीं रिसीव किया।। इस तरह 28 मई से 7 जून, 1975 तक कोई, यहाँ तक कि उनके नजदीकी दोस्त तक उनसे नहीं मिल सके।” यही नहीं जस्टिस सिन्हा के फैसले को प्रभावित करने की एक कोशिश और हुई थी।
सुप्रीम कोर्ट भेजने का दिया गया लालाच
शाँतिभूषण लिखते हैं, “न्यायमूर्ति सिन्हा गोल्फ खेलने के शौकीन थे। एक बार गोल्फ खेलते हुए उन्होंने मुझे एक किस्सा बताया था। जब ये याचिका सुनी जा रही थी तो जस्टिस डीएस माथुर इलाहाबाद हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश हुआ करते थे।” उन्होंने लिखा है, ”वो मेरे घर पहले कभी नहीं आए थे। लेकिन जब इस केस की बहस अपने चरम पर थी, तो एक दिन वो मेरे यहाँ अपनी पत्नी समेत आ पहुंचे।
जस्टिस माथुर इंदिरा गाँधी के उस समय के निजी डॉक्टर केपी माथुर के निकट संबंधी थे।” शांतिभूषण की किताब के मुताबिक, ”उन्होंने मुझे स्रोत न पूछे जाने की शर्त पर बताया कि उन्हें पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए मेरे नाम पर विचार हो रहा है। जैसे ही ये फैसला आएगा, आपको सुप्रीम कोर्ट का जज बना दिया जाएगा। मैंने उनसे कुछ भी नहीं कहा।”
जस्टिस माथुर से लिया गया इस्तीफा
दिलचस्प बात ये थी कि जनता पार्टी सरकार के सत्ता में आने पर इन्हीं जस्टिस माथुर को चरण सिंह ने एक महत्वपूर्ण जाँच आयोग का अध्यक्ष बना दिया। शाँति भूषण लिखते हैं कि जब वो विदेश यात्रा से वापस आए तो उन्होंने चरण सिंह को वो बात बताई जो उन्हें 1976 में गोल्फ खेलते हुए जस्टिस सिन्हा ने बताई थी।
शाँति भूषण लिखते हैं, “मैंने जस्टिस सिन्हा को पत्र लिख कर पूछा कि क्या वो जस्टिस माथुर के बारे उस बात की पुष्टि कर सकते हैं जो उन्होंने कुछ साल पहले उन्हें बताई थी। जस्टिस सिन्हा ने तुरंत उस पत्र का जवाब देते हुए कहा कि ये सारी बातें सही हैं। चरण सिंह ने वो पत्र जस्टिस माथुर को उनकी टिप्पणी के लिए आगे बढ़ा दिया। माथुर ने तुरंत जाँच आयोग से इस्तीफा दे दिया।”
जस्टिस सिन्हा पर फैसला टालने का था दबाव
7 जून तक जस्टिस सिन्हा ने फैसला डिक्टेट करा दिया था। तभी उनके पास चीफ जस्टिस माथुर का देहरादून से फोन आया। चूंकि ये फोन चीफ जस्टिस का था, इसलिए उन्हें ये फोन लेना पड़ा। माथुर ने उनसे कहा कि गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव पीपी नैयर ने उनसे मिल कर अनुरोध किया है कि फैसले को जुलाई तक स्थगित कर दिया जाए।
प्रशाँत भूषण लिखते हैं, “यह अनुरोध सुनते ही जस्टिस सिन्हा नाराज हो गए। वो तुरंत हाई कोर्ट गए और रजिस्ट्रार को आदेश दिया कि वो दोनों पक्षों को सूचित कर दें कि फैसला 12 जून को सुनाया जाएगा।”
जस्टिस सिन्हा पर लगा दी गई थी सीआईडी
कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘द जजमेंट’ में लिखते हैं कि सरकार के लिए फैसला इतना महत्वपूर्ण था कि उसने सीआईडी के एक दल को इस बात की जिम्मेदारी दी थी कि किसी भी तरह ये पता लगाया जाए कि जस्टिस सिन्हा क्या फैसला देने वाले हैं?” उन्होंने लिखा है, ”वो लोग 11 जून की देर रात सिन्हा के निजी सचिव मन्ना लाल के घर भी गए। लेकिन मन्ना लाल ने उन्हें एक भी बात नहीं बताई। सच्चाई ये थी कि जस्टिस सिन्हा ने अंतिम क्षणों में अपने फैसले के महत्वपूर्ण अंशों को जोड़ा था।
सिन्हा के निजी सचिव पर भी बनाया गया दबाव
वो लिखते हैं, “बहलाने फुसलाने के बाद भी जब मन्ना लाल कुछ बताने के लिए तैयार नहीं हुए तो सीआईडी वालों ने उन्हें धमकाया, ‘हम लोग आधे घंटे में फिर वापस आएंगे। हमें फैसला बता दो, नहीं तो तुम्हें पता है कि तुम्हारे लिए अच्छा क्या है।’ मन्ना लाल ने तुरंत अपने बीबी बच्चों को अपने रिश्तेदारों के यहाँ भेजा और जस्टिस सिन्हा के घर में जा कर शरण ले ली। उस रात तो मन्ना लाल बच गए, लेकिन जब अगली सुबह वो तैयार होने के लिए अपने घर पहुंचे, तो सीआईडी की कारों का एक काफिला उनके घर के सामने रुका।” प्रशाँत भूषण लिखते हैं, “उन्होंने फिर मन्ना लाल से फैसले के बारे में पूछा और यहाँ तक कहा कि इंदिरा गांधी खुद हॉटलाइन पर हैं। आप उन्हें खुद फैसले की जानकारी दे सकते हैं।
मन्ना लाल ने कहा कि उन्हें देर हो रही है। वो फिर जस्टिस सिन्हा के घर पहुंच गए।” प्रशांत भूषण ने लिखा है, ”मन्ना लाल की परेशानी यहीं खत्म नहीं हुई। फैसला आने के बहुत दिनों बात तक सीआईडी वाले उनसे पूछते रहे कि जून में जस्टिस सिन्हा से मिलने कौन-कौन आया करता था? वो ये भी जानना चाहते थे कि जस्टिस सिन्हा की जीवनशैली में हाल में कोई बदलाव हुआ है या नहीं।”
जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जॉन सिरिका से
प्रशाँत भूषण की किताब ‘द केस दैट शुक इंडिया’ की भूमिका लिखते हुए तत्कालीन उप राष्ट्रपति मोहम्मद हिदायतउल्लाह ने जस्टिस सिन्हा की तुलना वाटरगेट कांड के जज जस्टिस जॉन सिरिका से की थी। उनके फैसले की वजह से ही राष्ट्रपति निक्सन को इस्तीफा देना पड़ा था। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान ये पहला मौका था जब भारत के किसी प्रधानमंत्री को गवाही के लिए हाई कोर्ट में बुलवाया गया था।
कोर्ट में इंदिरा गांधी के आने पर खड़ा नहीं होने का आदेश
शाँति भूषण लिखते हैं, “इंदिरा गाँधी को अदालत कक्ष में बुलाने से पहले उन्होंने भरी अदालत में ऐलान किया कि अदालत की ये परंपरा है कि लोग तभी खड़े हों जब जज अदालत के अंदर घुसे। इसलिए जब कोई गवाह अदालत में घुसे तो वहाँ मौजूद कोई शख्स खड़ा न हो।” जब इंदिरा गांधी अदालत में घुसीं तो कोई भी उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ, सिवाए उनके वकील एससी खरे के। वो भी सिर्फ आधे ही खड़े हुए। जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी के लिए कटघरे में एक कुर्सी का इंतजाम करवाया, ताकि वो उस पर बैठ कर अपनी गवाही दे सकें।” जब 1977 मे जनता पार्टी की सरकार बनी तो शाँति भूषण भारत के कानून मंत्री बने।
जस्टिस सिन्हा ने नहीं लिया फेवर
शाँति भूषण लिखते हैं, “मैं जस्टिस सिन्हा का तबादला हिमाचल प्रदेश करना चाहता था ताकि वहाँ जब कोई पद खाली हो तो वो वहाँ के मुख्य न्यायाधीश बन सकें। जब उन तक ये पेशकश पहुंचाई गई तो उन्होंने विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार कर दिया। वो बहुत महत्वाकांक्षी व्यक्ति नहीं थे और इस बात से ही संतुष्ट थे कि उन्हें सिर्फ एक ईमानदार और काबिल शख्स के रूप में याद किया जाए।”