केदारनाथ आपदा 16 जून 2013 वो तारीख, जिसने उत्तराखंड को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आसमानी आफत ने केदार घाटी समेत पूरे उत्तराखंड में बर्बादी के वो निशान छोड़े, जिन्हें अब तक नहीं मिटाया जा सका। आपदा को आठ वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन आज भी कुछ सवाल जिंदा हैं। क्या इस त्रासदी से आम जनमानस और हमारी सरकारों ने सबक लिया है? क्या हम उन कार्ययोजनाओं, पाबंदियों पर काम कर रहे हैं, जिन्हें आपदा के बाद सख्ती से लागू किए जाने की बात कही गई थी। इन्हीं सब सवालों पर हमारे वरिष्ठ संवाददाता विनोद मुसान ने समाज के विभिन्न वर्गों से जुड़े लोगों से बातचीत की। इस दौरान पर्यावरणविद् पद्मभूषण डॉ. अनिल प्रकाश जोशी का कहना है कि जब भी केदारनाथ त्रासदी की बात आती है, हम प्रभु को तो याद करते हैं, लेकिन प्रकृति को भूल जाते हैं। जबकि दोनों एक ही हैं। प्रभु की याचना मात्र से हम आपदाओं से बच नहीं सकते हैं। इन्हें दैवीय आपदा कहा जाता है, लेकिन कहीं न कहीं इनका बीजारोपण इंसान ही करते हैं। सरकारें प्लान बनाती हैं, नियम बनाती हैं, लेकिन हम उनका पालन करना भूल जाते हैं। अब वक्त आ गया है, जब सरकारों को इस विषय में दंडात्मक कार्रवाई सुनिश्चत करनी चाहिए।
जोशी का कहना है कि केदारनाथ आपदा के बाद कहा गया था कि नदियों के किनारे अब कोई निर्माण नहीं होगा। हाईकोर्ट ने भी इस पर अपना निर्णय दिया था, लेकिन हुआ क्या? गंगा के तटीय क्षेत्र में रसूखदारों ने एनजीटी के नियम विरुद्ध बड़े-बड़े भवन खड़े कर लिए हैं। ऐसा नहीं है कि इसकी जानकारी संबंधित विभागों को नहीं है। लेकिन फिर भी यह सब प्रकृति के विरूद्ध हो रहा है। जिन विशाल पर्वतों को भगवान का रूप मानकर उन पर जाने और सिटी बजाने-शोर मचाने पर सामाजिक रूप से प्रतिबंध था। आज उन पहाड़ों को न केवल पर्यटन के रूप में विकसित करने पर जोर दिया जा रहा है, बल्कि धड़ल्ले से उन पर अर्थमूवर मशीनों को चलाने पर भी कोई रोक नहीं है। केदारनाथ त्रासदी के बहाने आज अपनी गलतियों से सबक लेने का दिन है। ताकि भविष्य में फिर ऐसी त्रासदी न हो।
शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के प्रांत पर्यावरण प्रमुख और जिला गंगा सुरक्षा समिति देहरादून के नामित सदस्य पर्यावरणविद् विनोद जुगलान का कहना है कि आसमान में घिरते बादल उत्तराखंड के पहाड़ में रह रहे लोगों के माथे पर चिंता की लकीरें ला देते हैं। उत्तराखंड में हर साल अतिवृष्टि, हिमस्खलन की घटनाएं आम हैं, लेकिन क्या इसमें हम इंसानों का कोई योगदान नहीं है। पहाड़ों में विकास कार्यों को लेकर और अधिक चिंतन करने की आवश्यकता है। विकास के लिए तकनीकी का प्रयोग पर्यावरण और प्रकृति के अनुरूप किया जाना चाहिए। विकास की नीतियां पहाड़ों के अनुरूप ही विकसित की जानी चाहिए।
जुगलान का कहना है कि हम अगर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेशों और नियमों की ही बात करें तो यह नियम कायदे हिमालय और गंगा की अस्मिता पर प्रहार करने वालों के आगे बौने नजर आते हैं। हर साल सड़क निर्माण का लाखों टन गर्दा, धूल, मिट्टी डंपिंग ग्राउंड में डालने के बजाए सीधे नदियों में गिरा दिया जाता है। जिससे नदियों के प्राकृतिक मार्ग सिल्ट (गाद) से अवरुद्ध होकर बाढ़, आपदा की संभावना को प्रबल करते हैं।
जिओ ट्रस्ट फॉर साइंसेस के अध्यक्ष और डीबीएस पीजी कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो. एके बियानी का कहना है कि भूकंप को छोड़कर भूस्खलन, अतिवृष्टि, हिमस्खलन आदि ऐसी आपदाएं हैं, जिनका सटीक पूर्वानुमान लगाया जा सकता है। इन प्राकृतिक आपदाओं के अध्ययन के लिए देश में कई वैज्ञानिक और तकनीकी संस्थाओं के साथ महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के विभाग कार्यरत हैं। आपदाओं के गुजर जाने के बाद वैज्ञानिक विश्लेषण बड़े व्यापक रूप में गहराई के साथ होते हैं। जबकि होना ये चाहिए कि ये वैज्ञानिक संस्थान इन आपदाओं के होने से पूर्व इनकी जानकारी दें।
केदारनाथ त्रासदी की बात करें तो 2013 में आई अतिवृष्टि कोई एकाएक होने वाली घटना नहीं थी। एक दिन में 35 से 40 सेंटीमीटर वर्षा का तंत्र कुछ घंटों में विकसित हो जाए, यह संभव नहीं है। पर्यावरण में इतनी बड़ी मात्रा में आद्रता का इकट्ठा होना और लगातार दो से तीन दिन बरसना इस बात को बताता है कि इतने बड़े सिस्टम को विकसित होने में काफी समय लगा होगा। इसी तरह फरवरी माह में हुई चमोली जिले की घटना में भारी मात्रा में पानी और मलबा आना अकस्मात होने वाली क्रिया नहीं हो सकती है। इस तरह के प्राकृतिक आपदाओं वाली घटनाओं वाले तंत्र को विकसित होने में समय लगता है।
केदारनाथ पुनर्निर्माण कार्यों में अहम भूमिका निभाने वाले कर्नल अजय कोठियाल (रि.) धाम में अब तक किए गए कार्यों को लेकर किसी हद तक संतोष जताते हैं, लेकिन पुनर्निर्माण कार्यों को और सजगता से करने की बात भी दोहराते हैं। वे धाम को स्थानीय लोगों की आर्थिकी से भी जोड़ना चाहते हैं। कर्नल कोठियाल का कहना है कि रामबड़ा से गौरीकुंड तक मंदाकिनी नदी के किनारे काफी ज्यादा टूट गए हैं और कमजोर हो गए हैं। इन पर प्रोटेक्शन वर्क करना जरूरी है। छानी कैंप से केदारनाथ तक केबल कार रोपवे का प्रावधान होना चाहिए, ताकि यात्रा आसान हो सके।
हिमाचल प्रदेश में हर साल बर्फ की वजह से रोहतांग दर्रा बंद हो जाता है। वहां की सरकार इस बात को ध्यान में रखते हुए पहले से ही कोर्स कर चुके युवाओं की टीम को रोहतांग वैली में तैनात कर देती है। ताकि रास्ता खुला रहे। केदारनाथ में हर साल यात्रा शुरू होने से पहले बर्फ साफ करनी पड़ती है। जबकि सरकार को इस मामले में हिमाचल के मॉडल को अपनाना चाहिए। इससे स्थानीय युवाओं को रोजगार भी मिलेगा। इस तरह हम विंटर ट्रैक व पर्यटन को बढ़ावा दे सकते हैं।