भारत रहस्यों से भरा देश है। हजारों ऐसे रहस्य हैं जिन्हें अब तक नहीं सुलझा पाए हैं। उन्हीं रहस्यों में से एक है देवी उग्रतारा का एक मंदिर और मंदिर में रखी चतुर्भुजी देवी की प्रतीमा पर खुदा हुआ कोई रहस्य। कहते हैं कि यह मूर्ति लगभग एक हजार वर्ष से भी पुरानी है।
कहां हैं मंदिर और मूर्ति?
बालूमाथ और औद्योगिक नगरी चंदवा के बीच एनएच-99 रांची मार्ग पर नगर नामक स्थान में एक अति प्राचीन मंदिर है जो भगवती उग्रतारा को समर्पित है। यह एक शक्तिपीठ है। मान्यता है कि यह मंदिर लगभग एक हजार वर्ष पुराना है। इस मंदिर के निर्माण में टोरी स्टेट के शासक पीतांबर नाथ शाही और पुन:निर्माण में रानी अहिल्याबाई का नाम जुड़ा हुआ है। मंदिर निर्माण से जुड़ी मान्यताएं पलामू के गजट 1961 में दर्शाया गया है।
रहस्यमयी लिपि का रहस्य बरकरार-
बालूमाथ से 25 किलोमीटर दूर प्रखंड के श्रीसमाद गांव के पास तितिया या तिसिया पहाड़ के पास पुरातत्व विभाग को चतुर्भुजी देवी की एक मूर्ति मिली है, जिसके पीछे अंकित लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। यह लिपि न तो ब्राह्मी है और न ही देवनागरी या भारत की अन्य कोई लिपि। भारत में अब तक ज्ञात सभी लिपियों से अलग इस लिपि को क्या कहा जाए यह पुरात्वविदों और शोधकर्ताओं के लिए अभी भी एक पहेली बनी हुई है।
मंदिर और मूर्ति से जुड़ी मान्यता-
मान्यता यह है कि टोरी के शासक पीतांबर नाथ शाही शिकार करते हुए लातेहार के मनकेरी गांव पहुंचे, तभी उन्हें प्यास लगी और पास के जोड़ा तालाब में पानी पीने गए। तभी तालाब से उन्हें दो मूर्तियां एक लक्ष्मी और दूसरी उग्रतारा की मिलीं। कुछ दिन पूर्व उन्हें स्वप्न में यही दो मूर्तियां दिखाई दी थीं। शिकार से लौटने के बाद उन्होंने मंदिर बनाने का निर्णय लिया और उसका निर्माण करवाया। लातेहार में आज भी मनकेरी गांव में जोड़ा तालाब है।
मंदिर की परंपरा- यहां नाथ संप्रदाय के गिरि उपाधि धारी लोग रहते हैं। मंदिर की मुख्य विशेषता इसका किसी विशेष वंश, कुल, परंपरा तथा संप्रदाय संकीर्णता से मुक्त रहना है। पहले पुरोहित के रूप में स्व. पंचानन मिश्र का नाम आता है, जिन्हें राजा ने नियुक्त किया था। मां उग्रतारा नगर मंदिर में राज दरबार की व्यवस्था आज भी कायम है। यहां पुजारी के रूप में मिश्रा और पाठक परिवार के अलावा बकरे की बलि देने के लिए पुरुषोत्तम पाहन, नगाड़ा बजाने के लिए घांसी, काड़ा की बलि देने के लिए पुजारी नियुक्त होते हैं।
इसके निर्माण में रानी अहिल्याबाई का नाम भी जुड़ा हुआ है। इस क्षेत्र में सभी को पूजा करने का समान अधिकार प्राप्त नहीं था। बंगाल यात्रा के दौरान रानी ने इस क्षेत्र में भ्रमण कर सभी जाति के लोगों को पूजा का समान अधिकार दिलाने के लिए मंदिर का निर्माण कराया था।
ऐसी मान्यता भी है कि 16 दिन का नवरात्रि उत्सव की परंपरा भी प्राचीकाल से चली आ रही है। जिउतिया की सुबह मातृ नवमी के दिन कलश स्थापना के बाद नवरात्रि प्रारंभ होता है। सप्तमी और अष्टमी के बीच बकरे और विजयादशमी के दिन बकरे और भैंसे की बलि देने की परंपरा है। दशहरा के दिन मूर्ति विसर्जन के लिए माता पर पान चढ़ाकर आदेश लिया जाता है। ऐसी मान्यता है कि पान के गिरने के बाद यह समझ लिया जाता है कि विसर्जन के लिए माता का आदेश है।
रहस्यमयी है संपूर्ण क्षेत्र-
मां भगवती उग्रतारा के दक्षिणी और पश्चिमी कोने पर स्थित चुटुबाग नामक पर्वत पर मां भ्रामरी देवी की गुफाएं हैं, जहां कई स्थानों पर बूंद-बूंद पानी टपकता रहता है। कहते हैं कि यहां करीब सत्तर फीट नीचे सतयुगी केले का वृक्ष है, जो वर्षों पुराना होने के बावजूद आज भी हराभरा है। इसमें फल भी लगता है। इसके अलाव वहां मौजूद एक पत्थर के छिद्र से पानी हमेशा निकलता रहता है, मगर यह पानी सिर्फ केले के वृक्षों को ही प्राप्त होता है।
कौन है देवी उग्रतारा?
भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष का पान करने पर, उनके शारीरिक की पीड़ा के निवारण हेतु, आदिशक्ति देवी ने देवी तारा के स्वरूप में प्रकट होकर शिवजी को अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था। इसके कारण शिवजी का हलाहल विष का असर शांत हो गया था। देवी तारा अपने मुख्य तीन स्वरूप से विख्यात हैं, उग्र तारा, नील सरस्वती तथा एक-जटा।
देवी के अन्य आठ रूप भी है जिन्हें ‘अष्ट तारा’ समूह कहते हैं- तारा, उग्र तारा, महोग्र तारा, वज्र तारा, नील तारा, सरस्वती, कामेश्वरी और भद्र काली-चामुंडा। यह देवी काली कुल की मानी गई हैं। दिशा उपर की ओर, वाहन गीदड़, वर्ण नीला और स्वभाव सौम्य उग्र, तामसी गुण सम्पन्न है। तारा देवी को दश महाविद्या में भी शामिल किया गया है।
माता के तीन ही प्रमुख स्थान हैं- मुख्य रूप से तारापीठ, रामपुरहाट बीरभूम पश्चिम बंगाल, सुघंधा बांग्लादेश तथा सासाराम बिहार में स्थिति इसके तीन प्रमुख शक्तिपीठ हैं लेकिन इसके अलावा भी माता के कुछ रहस्यमयी मंदिर और मूर्तियां भी विद्यमान हैं।