एक पुलिस अफसर चार महीने पहले एक खत लिख कर अपने सीनियर अफसर से कहता है कि अगर विकास दुबे और पुलिस की दोस्ती पर लगाम नहीं लगाई गई तो कुछ भी हो सकता है और उस अफसर का डर सही निकला.
चार महीने बाद विकास दुबे के हाथों जिन आठ पुलिसवालों की जान जाती है, उनमें एक जान उस पुलिस अफसर की भी थी, जिसने वो खत लिखा था. यूपी पुलिस के नाम ये खत सबूत है इस बात का कि विकास दुबे जैसे गुंडों को पैदा कौन करता है.
एक तरफ वो खत और दूसरी तरफ विकास के गुर्गे का कबूलनामा. ये दो वो सबूत हैं जो बताते हैं कि विकास दुबे क्या चीज था. विकास दुबे विकास दुबे कैसे और क्यों बना? क्यों इतना बेरहम हो गया कि आठ-आठ पुलिस वालों की जान लेने तक से नहीं हिचका? अगर एक अकेले इस खत को यूपी पुलिस वक्त पर गंभीरता से ले लेती तो शायद आठ पुलिस वालों की जान बच जाती. पर अफसोस ये दो सबूत बताते हैं कि कैसे यूपी पुलिस के कुछ लोग विकास दुबे की तनख्वाह पर पलते थे.
ये खत सिर्फ चार महीने पहले इसी साल 13 मार्च के बाद लिखा गया था. खत उन सीओ देवेंद्र मिश्र ने लिखा था जिनका नाम आठ शहीद पुलिसवालों में शामिल है.
खत उन्होंने कानपुर के एसएसपी को लिखा था. इस पत्र में देवेंद्र मिश्र ने लिखा है कि विकास दुबे पर करीब 150 संगीन मुकदमे दर्ज हैं. 13 मार्च को इसी विकास दुबे के खिलाफ चौबेपुर थाना में एक मुकदमा दर्ज हुआ था. जो आईपीसी की धारा 386 के तहत दर्ज हुआ था. मामला एक्सटॉर्शन का था. इसमें दस साल तक की सजा का प्रावधान है और ये एक गैर जमानती अपराध है.
सीओ देवेंद्र मिश्र ने पत्र में आगे लिखा है कि गैर जमानती अपराध होने के बावजूद जब चौबीस घंटे तक विकास दुबे के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई और उसे गिरफ्तार नहीं किया गया तो 14 मार्च को उन्होंने केस का अपडेट पूछा. इस पर उन्हें पता चला कि चौबेपुर के थानाध्यक्ष विनय कुमार तिवारी ने एफआईआर से 386 की धारा हटा कर पुरानी रंजिश की मामूली धारा लगा दी.
इस पत्र में सीओ देवेंद्र मिश्र ने साफ-साफ लिखा था कि थानाध्यक्ष विनय तिवारी का विकास दुबे के पास आना-जाना और बातचीत बनी हुई है. इतना ही नहीं सीओ साहब ने चार महीने पहले ही आगाह कर दिया था कि अगर थानाध्यक्ष अपने काम करने के तरीके नहीं बदलते तो गंभीर घटना घट सकती है.
और देखिए चार महीने बाद जिस पुलिस वाले ने विकास दुबे से पुलिस की ही मुखबिरी की वो कोई और नहीं चौबेपुर का वही थानाध्यक्ष विनय कुमार तिवारी था. जिसे अब सस्पेंड किया गया है. इस एनकाउंटर के दौरान विकास दुबे के साथ रहा उसका साथी तक ये इकरार कर रहा है कि पुलिस के आने की खबर थाने से ही मिली थी.
अब सवाल यहां ये है कि विकास दुबे और थानाध्यक्ष के बीच साठगांठ की पूरी जानकारी कानपुर के एसएसपी तक को थी. पत्र के आखिर में सीओ साहब ने बकायदा ये तक लिखा था कि थानध्यक्ष के खिलाफ एफआईआर में धारा बदलवाने के लिए जरूरी कार्रवाई होनी चाहिए.
मगर अफसोस, कानपुर के आला पुलिस अफसरों ने भी तब विकास दुबे या थानाध्यक्ष के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की.
होती भी कैसे. पुलिस दोस्त बनी हुई थी और नेता सिर पे हाथ जो रखे हुए थे. काश वक्त पर पुलिस अपना काम ईमानदारी से कर लेती तो शायद आज आठ पुलिसवालों के बच्चों के सिर से उनके बाप का साया ना छिनता.