सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था, जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से सांस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।’ ‘ब्रह्म वह है, जिसमें से संपूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।’ –
ब्रह्म से आत्मा। आत्मा से जगत की उत्पत्ति हुई। महर्षि अरविंद ने अपनी किताब ‘दिव्य जीवन’ में इस संबंध में बहुत अच्छे से लिखा है। उन्होंने जहां पुराणों के अनुसार धरती पर जीवन की उत्पत्ति, विकास और उत्थान के बारे में बताया है वहीं उन्होंने वेदों की पंचकोशों की धारणा को विज्ञान की कसौटी पर कसा है।
जब धरती ठंडी होने लगी तो उस पर बर्फ और जल का साम्राज्य हो गया। तब धरती पर जल ही जल हो गया। इस जल में ही जीवन की उत्पत्ति हुई। आत्मा ने ही खुद को जलरूप में व्यक्त किया। इस जलरूप ने ही करोड़ों रूप धरे। जल का यह रूप हिरण्यगर्भ में जन्मा अर्थात जल के गर्भ में जन्मा।
सर्वप्रथम : सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ से अंडे के रूप का एक मुख प्रकट हुआ। मुख से वाक् इन्द्री, वाक् इन्द्री से ‘अग्नि’ उत्पन्न हुई। तदुपरांत नाक के छिद्र प्रकट हुए। नाक के छिद्रों से ‘प्राण’ और प्राण से ‘वायु’ उत्पन्न हुई। फिर नेत्र उत्पन्न हुए। नेत्रों से चक्षु (देखने की शक्ति) प्रकट हुए और चक्षु से ‘आदित्य’ प्रकट हुआ। फिर ‘त्वचा’, त्वचा से ‘रोम’ और रोमों से वनस्पति-रूप ‘औषधियां’ प्रकट हुईं। उसके बाद ‘हृदय’, ‘हृदय’ से ‘मन, ‘मन से ‘चन्द्र’ उदित हुआ। तदुपरांत नाभि, नाभि से ‘अपान’ और अपान से ‘मृत्यु’ का प्रादुर्भाव हुआ। फिर ‘जननेन्द्रिय, ‘जननेन्द्रिय से ‘वीर्य’ और ‘वीर्य’ से ‘आप:’ (जल या सृजनशीलता) की उत्पत्ति हुई।
यहां वीर्य से पुन: ‘आप:’ की उत्पत्ति कही गई है। यह आप: ही सृष्टिकर्ता का आधारभूत प्रवाह है। वीर्य से सृष्टि का ‘बीज’ तैयार होता है। उसी के प्रवाह में चेतना-शक्ति पुन: आकार ग्रहण करने लगती है। सर्वप्रथम यह चेतना-शक्ति हिरण्य पुरुष के रूप में सामने आई।
अति सूक्ष्म रूप में जीवन की उत्पत्ति के बाद मोटेतौर पर वनस्पत्तियों, लताओं और फिर वृक्षों की उत्पत्ति हुई। इस क्रम में आगे चलकर एककोशीय और फिर बहुकोशीय जीवों की उत्पत्ति हुई।
कुछ ऐसे जीव उत्पन्न हुए जिसमें हड्डी न होती थी तथा ये किसी पतले इमली, नीम के पत्ते की तरह होते थे। प्रारंभ में ये सभी जल के भीतर की भूमि से जुड़े रहते थे। ऐसे जीव जो एकेंद्रीय थे अर्थात वे न देख सकते थे, न सुन सकते थे, न स्वाद ले सकते थे। बस स्पर्श ही उनकी अनुभूति थी।
इसी क्रम में आगे चलकर एक पत्तेनुमा मछली की उत्पत्ति हुई। फिर मछली ने कई रूप धरे। हिन्दू धर्म में मछली को पवित्र जलचर जंतु माना जाता है। जल के अंदर मछली की उत्पत्ति सबसे बड़ी घटना थी। संभवत: यह घटना 3 अरब वर्ष पहले की है।
वराह काल और कच्छप काल : जब वराह काल में धरती के कुछ भाग को जल से ऊपर प्रकट किया गया तो प्रारंभ में कुछ आदिकालीन शैवाल और वनस्पतियों ने धरती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। यही धीरे-धीरे वृक्ष का आकार लेने लगी।
इन छोटी-छोटी घासों के पीछे आए उभयचर प्राणी, कीट, कीड़े और सरीसृप आदि। यही धरती पर और जल में अपनी सत्ता जमाने लगे। इनमें से कई हिंसक प्राणियों से बचने के लिए कीटों ने वृक्षों पर चढ़ना सीखा और उनमें से ही कुछ कीटों में पंख निकलने लगे और इस तरह आकाश में कीट-पतंगों की भरमार होने लगी।
इधर कई उभयचर प्राणियों में कछुआ सबसे विकसित प्राणी था और उन्हीं आदिकालीन प्रजातियों में से कुछ उड़ना सीखकर पक्षी होने लगे। कुछ धरती पर नए-नए रूप धरने लगे। सर्वप्रथम जमीन पर बसने वाले प्राणियों ने अपनी जड़ें पानी में ही जमाए रखीं, उसी तरह जिस तरह कि वनस्पत्तियों और पौधों ने। ऐसा इसलिए कि वे धरती पर ज्यादा देर तक रह नहीं सकते थे। उन्हें सांस लेने के लिए जल में लौटना ही पड़ता था।
हिन्दू धर्म में सर्प को इसलिए महत्व दिया जाता है कि जहां जल में इसकी करोड़ों प्रजातियां थीं वहीं धरती पर सबसे पहले इसका ही साम्राज्य स्थापित हुआ। यह जल के बगैर भी धरती पर कई दिनों तक रहने में कामयाब रहा और इसने अन्य प्राणियों की अपेक्षा सबसे पहले जल पर अपनी निर्भरता छोड़ दी। इसकी ऐसी भी प्रजातियां थीं, जो उड़ने में सफल हो गई थीं।
वराह, कच्छप और सर्प ने धरती पर जीवन के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिस तरह सर्प की कुछ अन्य प्रजातियां उड़ने में सफल हो गई थीं उसी तरह कछुए की प्रजातियां भी कुछ इसमें सफल रहीं और इस तरह आकाश में कीट-पतंगों, मछलियों, कछुओं और सर्पों की भिन्न-भिन्न प्रजातियों ने आकाश को हरा-भरा कर दिया।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, धरा के पर्यावरण में भारी बदलाव आते गए। जो जीव इन परिवर्तनों के अनुसार अपने आपको ढाल नहीं सके, वे हमेशा के लिए विलुप्त हो गए और जिन्होंने खुद को बचाए रखा वे विजेता कहलाए। उनमें मछली, सर्प, कछु्आ, मगरमच्छ, कीट-पतंगें, चींटी, मकोड़े आदि जलचर और उभयचर प्राणी तो आज भी हैं, लेकिन अब सवाल यह उठता है कि मनुष्य कैसे और किससे बना?
इसके लिए हिन्दू धर्म में दो सिद्धांत हैं- 1. मनुष्य को ईश्वर ने बनाया, 2. क्रम विकास के तहत मनुष्य बना मछली जैसे प्राणी से।
1. मनुष्य को ईश्वर ने बनाया : ब्रह्म से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई और ब्रह्मा ने खुद को दो भागों में विभक्त कर लिया। उसका पुरुष रूप एक भाग का नाम था स्वायंभुव मनु और स्त्री रूप दूसरे का नाम शतरूपा था। सप्तचरुतीर्थ के पास वितस्ता नदी की शाखा देविका नदी के तट पर मनुष्य जाति की उत्पत्ति हुई। प्रमाण यही बताते हैं कि आदि सृष्टि की उत्पत्ति भारत के उत्तराखंड अर्थात इस ब्रह्मावर्त क्षेत्र में ही हुई।
2. मनुष्य बना मछली जैसे प्राणी से : आज का मनुष्य मछली की लाखों प्रजातियों में से एक विशेष मछली का विकसित रूप है। विकास के क्रम में उसने कई महत्वपूर्ण रूप बदले। लेकिन पूर्व काल में मनुष्य सिर्फ मछली का ही विकसित रूप नहीं रहा और भी कई ऐसे जीव-जंतु थे, जो न मालूम कब वानर की भिन्न-भिन्न प्रजातियां बनते गए और अंतत: उन्हीं में से एक आज का आधुनिक मनुष्य बना। जिस तरह मछलियां हजारों प्रजातियों में पाई जाती हैं उसी तरह मानव भी आदिकाल में हजारों प्रजातियों में थे। हालांकि आज हमें अफ्रीकी, यूरोपीय, चीनी, भारतीय आदि क्षेत्र की मानव प्रजातियां ही नजर आती हैं।
वेद में सृष्टि की उत्पत्ति, विकास, विध्वंस और आत्मा की गति को पंचकोश के क्रम में समझाया गया है। पंचकोश ये हैं- 1. अन्नमय, 2. प्राणमय, 3. मनोमय, 4. विज्ञानमय और 5. आनंदमय।
उक्त पंचकोश को ही 5 तरह का शरीर भी कहा गया है। वेदों की उक्त धारणा विज्ञानसम्मत है।
दो गोलार्ध हैं- एक उर्ध्व और दूसरा अधो। जब आत्मा नीचे गिरती है तो जड़ हो जाती है और इस तरह वह विकास क्रम का हिस्सा बनकर अपने पुरुषार्थ से ऊपर उठना शुरू करती है और अंतत: स्वयं के आनंदस्वरूप को पुन: प्राप्त कर लेती है। लेकिन कुछ ऐसी भी आत्माएं हैं, जो कभी नीचे नहीं गिरीं और जाग्रत हो गईं, वे ही आत्माएं देवात्माएं कहलाईं। उनके कारण भी सृष्टि उत्पत्ति, विकास और विध्वंस हुआ।