समकालीन भारतीय राजनीति में ‘इनसाइक्लोपीडिया’ माने जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी लोकतांत्रिक और संवैधानिक मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा के पैरोकार राजनेताओं की पीढ़ी के आखिरी स्तंभ थे। लोकतंत्र की जीवंतता के साथ शासन व्यवस्था को संवैधानिक नीति शास्त्र के मार्ग पर चलने के मजबूत हिमायती रहे दादा की राजनीति में एक संकटमोचक की छवि भी बेहद खास रही। पांच दशक से भी अधिक समय तक देश की सियासत में अपनी एक विशिष्ट पहचान जरूर बनाई मगर राजनीति की नहीं बल्कि इसे आखिरी क्षण तक जिया।
लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था थी प्रणब दा की
पश्चिम बंगाल के अपने गांव की पगडंडियों से शुरू जिंदगी के सफर को राष्ट्रपति पद के शिखर तक पहुंचा कर राजनीति को विराम देने वाले प्रणव मुखर्जी ने शासन और राजनीति की मर्यादाओं का हमेशा पालन जरूर किया मगर खामियों पर बेबाक सवाल उठाने से कभी नहीं हिचके। पंडित जवाहर लाल नेहरू की लोकतंत्र की परिभाषा को हमेशा राजनीति में अपने लिए आदर्श मानते रहे दादा इंदिरा गांधी की बेबाकी के प्रशंसक रहे। जीवन पर्यंत कांग्रेस की राजनीतिक विचाराधारा पर दृढ़ रहे प्रणव मुखर्जी का आदर-सम्मान दलीय सीमाओं से इतर था। 2019 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से उनको सम्मानित करने का मोदी सरकार का फैसला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
पहली बार आम नागरिकों के लिए खोला राष्ट्रपति भवन का दरवाजा
वैसे राष्ट्रपति के तौर पर भी प्रणब मुखर्जी के कई कदम रायसीना हिल्स में उनके उत्तराधिकारियों के लिए मिसाल रहेगा। इतिहास और विरासत की अपनी उच्च बौद्धिक संपदा के सहारे राष्ट्रपति भवन में भी दादा ने अपनी अमिट छाप छोड़ी। लोकतांत्रिक मूल्यों में गहरी आस्था रखने ‘महामहिम’ का संबोधन बंद करने से लेकर राष्ट्रपति भवन का दरवाजा आम नागरिकों के लिए खोलने जैसे बेमिसाल बदलाव कर अपने राष्ट्रपतित्व काल में कई सुनहरे अध्याय लिखे।
राष्ट्रपति के रूप में रायसीना पहुंचते ही महामहिम संबोधन दादा को चुभने लगे थे। उनका मानना था कि यह शब्द सामंतशाही ब्रिटिशकाल की ऐसी विरासत है जिसे भारतीय गणतंत्र के राष्ट्रपति के लिए प्रयोग किया जाना उचित नहीं। लोकतंत्र में जनता की आवाज को सर्वोच्च तवज्जो देने वाले दादा ने अपनी इसी सोच के तहत राष्ट्रपति भवन का दरवाजा पहली बार आम नागरिकों के लिए खोला। इसकी वजह से आज उस राष्ट्रपति भवन को देखने सैलानी आते-जाते हैं जिसके दरवाजे कभी उनके लिए खुलते नहीं थे।
लंबित दया याचिकाओं को लेकर रिकॉर्ड बनाया
राष्ट्रपति की शासन संचालन में बेहद सीमित भूमिका है मगर संवैधानिक प्रमुख के नाते कुछ ऐसे विशेषाधिकार हैं। इसमें फांसी की सजा के खिलाफ दया याचिका पर फैसले एक अहम अधिकार है। दादा ने जब 2012 में राष्ट्रपति पद की कमान संभाली तब बड़ी तादाद में लंबित दया याचिकाओं को लेकर सियासत गरम थी। मगर प्रणब ने रिकार्ड बनाते हुए दया याचिकाओं का जिस गति से निपटारा किया उसकी चहुओर सराहना की गई।
दो मौकों पर प्रधानमंत्री की कुर्सी प्रणव दा के पास आती-आती रह गई
राजनीति में शिखर से शून्य और शून्य से शिखर के कई दौर देखने वाले प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति के शीर्ष संवैधानिक पद के अपने सफरनामे को सबसे सुनहरे दौर के रुप में याद रखते रहे। मुखर्जी कांग्रेस की सियासत में भी चार दशक से ज्यादा पार्टी की अग्रिम पंक्ति का का हिस्सा रहे। मगर सियासत का रुख कुछ ऐसा रहा कि दो मौकों पर प्रधानमंत्री की कुर्सी प्रणव दा के पास आती-आती रह गई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सबसे वरिष्ठ और प्रबल दावेदार होते हुए भी वे राजीव गांधी के मुकाबले पीछे रह गए। इसकी वजह से कुछ सालों के लिए राजीव गांधी के साथ उनके रिश्ते ठीक नहीं चले।
दादा ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी भी बनाई मगर कांग्रेस से बाहर सियासत में गुंजाइश न देख वे वापस पार्टी में लौट आए। पीएम पद दूसरी बार दादा से दूर तब छिटक गया जब 2004 में डा मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के लिए कांग्रेस की पसंद बन गए। खास बात यह भी रही कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ दादा के रिश्ते हमेशा सद्भावपूर्ण रहे। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की हैसियत से सोनिया गांधी ने ही प्रणव मुखर्जी का नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित किया था।
राव ने डायरी लिखने की हॉबी की प्रगति पूछी
इंदिरा गांधी की कैबिनेट में वित्तमंत्री रह चुके दादा जब अपने राजनीतिक संक्रमण के दौर में थे तब तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने उनके शिखर के पड़ाव की राह खोली। इस दौर में एक दिन अचानक राव ने दादा को फोन कर चाय पीने उनके घर आने की इच्छा जताई। अगले ही दिन राव ग्रेटर कैलाश स्थित उनके घर पहुंचे। चाय पर चर्चाओं के साथ राव ने प्रणब से उनकी डायरी लिखने की हॉबी की प्रगति पूछी तो पता चला कि दादा ने कुछ समय से इसे लिखना बंद कर दिया था।
डायरी लिखने का सिलसिला आखिरी समय तक चलता रहा
दरअसल, दिल्ली में उस समय आई बाढ़ में अपनी किताबों के साथ डायरी के दशकों से लिखे पन्ने नष्ट हो जाने से क्षुब्ध होकर दादा ने लिखना बंद कर दिया था। राव ने दादा को डायरी लिखने की पुरानी हॉबी फिर शुरू करने की सलाह दी। अगले दिन प्रधानमंत्री राव की ओर से डायरी और पेन का तोहफा प्रणब को भेजा गया। राव के इस तोहफे के साथ ही डायरी लिखने का सिलसिला दादा ने फिर शुरू किया जो आखिरी समय तक चलता रहा।
डायरी में समकालीन राजनीति, शासन और घटनाओं के असंख्य किस्से
दादा ने अपनी डायरी की विरासत का उत्तराधिकारी बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी को बनाया है। समकालीन राजनीति, शासन और घटनाओं के असंख्य किस्से दादा की डायरी में शब्द ही नहीं कहानी का रूप ले चुके हैं। राव ने इसके कुछ दिन बाद ही प्रणव को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया। यहीं से उनके राजनीतिक सफर ने ऐसी करवट ली कि शीर्ष संवैधानिक पद की मंजिल उनसे आंख-मिचौली नहीं कर सकी। यह किस्सा प्रणब दादा ने राष्ट्रपति बनने के समय खुद पत्रकारों को सुनाया था।