अमेरिका-तालिबान और अफगानिस्तान के लिए 29 फरवरी का दिन बेहद खास है। यही वो दिन है जब अफगानिस्तान में शांति बहाली को लेकर इन दोनों के बीच कोई समझौता हो सकता है। हालांकि, जिस तरह से तालिबान ने कुछ दिन पहले अफगानिस्तान में अमेरिकियों को निशाना बनाया है उससे इस समझौते पर भी आशंका के बादल मंडराते दिखाई दे रहे हैं। इसके बावजूद यहां पर अमेरिका की मजबूरी भी आड़े आ रही है।
तालिबान-अमेरिका समझौता
आपको बता दें कि वर्ष 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने वादा किया था कि यदि वे सत्ता में आए तो अफगानिस्तान से अपनी फौज को वापस बुला लेंगे। इसका उन्हें समर्थन भी मिला था। उनका कहना था कि वर्षों तक अफगानिस्तान में मौजूद रहने के बाद भी अमेरिका को इसका कोई लाभ नहीं मिला है। उन्होंने इसको पूर्व की सरकारों की एक बड़ी गलती भी करार दिया था। इतना ही नहीं उन्होंने यहां तक कहा था कि अमेरिका ने पूरी दुनिया को सुरक्षित करने का ठेका नहीं ले रखा है। अब जबकि उनका कार्यकाल खत्म होने की तरफ है और इस वर्ष के अंत में वहां पर चुनाव होने हैं तो फिर से अमेरिकी फौज की वापसी एक बड़ा मुद्दा बन सकता है। ये वो वादा है जिसको अब तक ट्रंप पूरा नहीं कर सके हैं और ये उनके ऊपर भारी पड़ सकता है। इसलिए जानकार ये भी मानते हैं कि अमेरिका अफगानिस्तान में शांति कायम करने के लिए तालिबान से समझौते को हरी झंडी दे सकता है।
तालिबान को पाकिस्तान का साथ
इस संभावित समझौते पर भारत की भी नजर है। दरअसल, भारत नहीं चाहता है कि तालिबान जैसा कोई भी आतंकी संगठन अफगानिस्तान में अपनी सरकार बनाए। वहीं तालिबान का इस समझौते के पीछे पूरा मकसद अफगानिस्तान में दोबारा सरकार कायम करना है। इसमें उसकी मदद पाकिस्तान भी कर रहा है। पाकिस्तान चाहता है कि अफगानिस्तान की वर्तमान में चुनी गई सरकार की जगह तालिबान की हुकूमत कायम हो। इससे पहले जब अफगानिस्तान में तालिबान ने अपनी सरकार बनाई थी तब केवल पाकिस्तान ने ही उसको मान्यता दी थी। इसकी वजह एक ये भी है क्योंकि अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार भारत के हितों की पक्षधर रही है। भारत और अफगानिस्तान की सरकार के बीच बेहतर संबंध भी हैं।
कहीं खराब न हो जाएं हालात
इस बाबत अमेरिका में भारत की पूर्व राजदूत मीरा शंकर का कहना है कि अमेरिका भारत की चिंताओं से अवगत तो है लेकिन यहां पर उसकी अपनी मजबूरी काफी बड़ी है। तालिबान का यहां पर दोबारा काबिज होना क्षेत्रीए सुरक्षा के लिए भी एक बड़ा खतरा है। इसके अलावा वे भी मानती हैं कि अफगानिस्तान से अपनी फौज को हटाने क लिए ट्रंप तय दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में भारत को ये सुनिश्चित करना होगा कि यदि ये समझौता होता है तो क्षेत्रीय सुरक्षा खतरे में न पड़ने पाए। इसके अलावा अमेरिका को ये भी देखना होगा कि उनके वहां के चले जाने से वहां पर एक शून्य न बन जाए। यदि ऐसा हुआ तो तालिबान वहां पर हावी हो जाएगा और हालात फिर से खराब हो जाएंगे।
तालिबान का अडि़यल रुख
आपको यहां पर ये भी बता दें कि तालिबान और अमेरिका के बीच बीते 18 माह से शांति वार्ता चल रही है। लेकिन इस शांति वार्ता में अफगानिस्तान सरकार की तरफ से कोई नुमाइंदा शामिल नहीं है। तालिबान ने ये भी साफ कर दिया है कि वह सरकार से तभी बातचीत करेगा जब अमेरिका से उसका समझौता हो जाता है। ऐसा न होने पर उसका पुराना रुख कायम रहेगा।
इधर भी एक नजर
आपको बता दें कि 19 वर्षों से जारी संघर्ष में करीब 2,400 अमेरिकी जवानों की जान गई हैं। वहीं करीब 25 लाख से अधिक लोगों ने दूसरे देशों में शरण ली है। अफगानिस्तान में वर्ष 2001 से ही अमेरिकी फौज मौजूद है। अब संभावित समझौते के बाद यहां पर मौजूद करीब 14 हजार अमेरिकी सैनिकों की वापसी का रास्ता साफ होने की उम्मीद मजबूत हो रही है। गौरतलब है कि अमेरिका के लिए ये जंग सबसे लंबी और सबसे महंगी साबित हुई है, जहां अमेरिका को कई सफलता हासिल नहीं हुई है।