विश्व गणतंत्र की जननी वैशाली अपने इतिहास के उज्जवल धरोहर को अपनी आगोश में छिपाए आज भी सिसक रही है। विकास के नाम पर यहां के लोगों को दंश के सिवा कुछ नहीं मिला। हर मामले में पिछड़ा यह इलाका आज भी सर्वांगिण विकास की बाट जोह रहा है।
वैशाली में बैठ कर यह कल्पना करना भी कठिन जान पड़ता है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व पहले यह नगरी संपन्न और प्रभावशाली गणराज्य की राजधानी थी। 23 अप्रैल 1956 को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के वैशाली में कहे गए शब्द यहां के आम लोगों की जिंदगी को देखकर ही कहे गए थे। भारत सरकार एवं बिहार सरकार के मंत्रियों द्वारा कितनी घोषणाएं की गयी अब यहां के लोग भूल गए हैं।
उपेक्षा का दंश झेल रही वैशाली
आज भी मजदूरों के पलायन, शिक्षा की बद से बदतर स्थिति, सिंचाई सुविधाओं का घोर अभाव, स्वास्थ्य व शुद्ध पेयजल के लिए मुहताज है। उद्योग के नाम पर यहां कुछ भी नहीं है। इसे वैशाली का दुर्भाग्य कहें या यहां के लिच्छवियों के पतन की अंतिम कहानी।
विश्व को गणतंत्र देने वाली वैशाली का आध्यात्मिक, सांस्कृतिक इतिहास और भी पुराना है। स्वयं नारायण ने बामण अवतार लेकर राजा बली से तीन पग भूमि यहीं मांगी थी। स्वयंवर में भाग लेने जनकपुर जाने के क्रम में भगवान राम अपने गुरु विश्वामित्र एवं अनुज लक्ष्मण के साथ यहां वैशाली का आतिथ्य स्वीकार किया था। यहीं अलार कलाम के आश्रम में भगवान बुद्ध ने सांख्य दर्शन की शिक्षा पाई थी।
विदेशियों ने वैशाली को संवारा
यहां अब तक हुए विकास में विदेशियों का योगदान कहीं अधिक है। बौद्ध देश जापान के सहयोग से यहां भव्य शांति स्तूप का निर्माण हुआ। कई देशों की भक्त मॉनेस्ट्री वैशाली के सौंदर्य को बढ़ाने का काम किया। रैलिक स्तूप, सुंदर उद्यान जहां विदेशी सहयोग से फलीभूत हुआ। वहीं जैन संप्रदाय के लोगों ने उनकी जन्मस्थली बासोकुंड में भव्य मंदिर एवं मूर्ति का निर्माण कराया।
उद्धारक की बाट जोह रहे ऐतिहासिक स्थल
वैशाली की राजनर्तकी आम्रपाली का गांव अंबारा, बावन पोखर, सूफी संत मिलन साह का मजार, चौमुखी महादेव, अलार कलाम का आश्रम, जंगली मठ, विमलकृति सरोवर ऐसे दर्जनों ऐतिहासिक स्थल हैं जिन्हें देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक आते हैं। इन स्थलों का हाल देखकर वे सरकार और उसकी व्यवस्था को कोसते हुए चले जाते हैं।