चार साल पहले तक स्वच्छता न तो सरकार के एजेंडे में थी, न ही समाज के। एजेंडा था तो शहर की नगरपालिकाओं का। वह भी ऐसा कि मुंबई-दिल्ली जैसे महानगरों में हर साल सैकड़ों सफाई कामगार मैनहोल की सफाई करते हुए मीथेन गैस की दुर्गंध से ही मर जाते हैं और शहर अपनी रफ्तार से चलता रहता है। 
अब स्वच्छता पर चर्चा शुरू हुई है, बड़ी संख्या में शौचालय बन रहे हैं तो उनकी सफाई की भी जरूरत महसूस होगी। इसलिए इस क्षेत्र में भी अब लोगों को कैरियर नजर आने लगा है। सी कैरियर तक पहुंचाने का माध्यम बन रहा है महाराष्ट्र के औरंगाबाद में खुला देश का पहला ‘वर्ल्ड टॉयलेट कॉलेज’। यहां 2020 तक 5000 स्वच्छता कामगारों को प्रशिक्षित करने का लक्ष्य है। ताकि वे इस कॉलेज में प्रशिक्षण प्राप्त कर निजी या सरकारी क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने के साथ- साथ प्रधानमंत्री के स्वच्छता मिशन के वाहक भी बन सकें। बता दें कि 2011 की सामाजिक-आर्थिक जातीय जनगणना के अनुसार देश के ग्रामीण क्षेत्रों में अभी भी 1,82,505 परिवार ऐसे हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में हाथों से टॉयलेट साफ कर अपना खर्च चलाते हैं। अकेले महाराष्ट्र में ऐसे परिवारों की संख्या 63,713 है। इसके बाद मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, त्रिपुरा और कर्नाटक का नंबर आता है।
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