सरकार गिरने और एक वोट से हारने के बाद भी रहे ‘अटल’

 ऐसे लोगों की राय थी कि अटलजी उदार और व्यावहारिक नेता थे। हालांकि इनमें से काफी लोग उन्हें तब भी फासिस्ट बताते थे। आज वे उन्हें उदार मान रहे हैं, तो इसके दो कारण हैं। हमारी संस्कृति में निधन के बाद व्यक्ति की आलोचना नहीं करते, पर यह राजनीति का गुण नहीं है। पिछले डेढ़ दशक की राजनीति के ठोस सत्य से रूबरू होने के बाद यह वास्तव में दिल की आवाज है।

भाजपा को राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने में अटल का सबसे बड़ा रोल
अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है बीजेपी को स्थायी विरोधी दल से सत्तारूढ़ दल में बदलना। पार्टी की तूफान से घिरी किश्ती को न केवल उन्होंने बाहर निकाला, बल्कि सिंहासन बैठा दिया। देश का दुर्भाग्य है कि जिस वक्त उसे उनके जैसे नेता की सबसे बड़ी जरूरत थी, वे सेवा निवृत्त हो गए और फिर उनके स्वास्थ्य ने जवाब दे दिया। दिसम्बर 1992 के बाद बीजेपी ‘अछूत’ पार्टी बन गई थी। आडवाणी जी के अयोध्या अभियान ने उसे एक लम्बी बाधा-दौड़ में सबसे आगे आने का मौका जरूर दिया, पर मुख्यधारा की वैधता और राष्ट्रीय स्वीकार्यता दिलाने का काम अटल बिहारी ने किया।

हालांकि सन 1996 में वह सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आई, पर वह एक सीमारेखा बन गई। बीजेपी का ‘हिन्दुत्व’ उसे पैन-इंडिया पार्टी बनने में आड़े आ रहा था। सन 1998 और फिर 1999 में बनी अटल-सरकार ने कांग्रेस की उस राष्ट्रीय-छवि को वस्तुतः छीन लिया, जिसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत मानकर चलती थी। अटलजी के निधन के बाद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि अटलजी ने राष्ट्रीय आमराय की राजनीति की और नेहरू की भारत की परिकल्पना से सहमति व्यक्त की।

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