भारतीय सेना में एक रवायत है कि वहाँ जब कमांडोज़ को ट्रेन किया जाता है तो उन्हें विपरीत परिस्थितियों में जीवित रहने के सभी गुरों के साथ साथ सांप को मार कर खाना भी सिखाया जाता है. ऐसा विश्वास है कि अगर एक कमांडो ने सांप को मार कर खा लिया, तो वो इस दुनिया में कुछ भी कर सकता है.
11 अक्तूबर,1987 की रात पलाली, श्रीलंका में मौजूद 10 पैरा कमांडोज़ को जाफ़ना विश्वविद्यालय में एलटीटीई के मुख्यालय पर नियंत्रण करने की ज़िम्मेदारी दी गई. उड़ान भरने से पहले सभा कमांडोज़ ने अपना युद्ध नारा, ‘दुर्गे भवानी की जय’ लगाया और रात 1 बजे दो एम आई हैलिकॉप्टरों ने 50 सैनिकों के साथ जाफ़ना के लिए उड़ान भरी.
वो मात्र 200 मीटर की ऊंचाई पर उड़ रहे थे. अभियान को गुप्त रखने के लिए हैलिकाप्टर्स की सारी बत्तियाँ बुझा दी गई थीं. ‘मिशन ओवरसीज़-डेयरिंग ऑपरेशन ऑफ़ द इंडियन मिलिट्री’ के लेखक और इंडियन एक्सप्रेस अख़बार के सह संपादक सुशांत सिंह बताते हैं, “एक फ़ौजी टर्म होता है पाथ फ़ाइनडर. पैरा कमांडर्स को पाथ फ़ाइनडर की भूमिका दी गई थी. मुख्य भूमिका सिख एलआई को दी गई थी. पाथ फ़ाइनडर का काम होता है कि उस जगह पर उतर कर उसे मार्क करें और बताएं कि ये जगह उतरने के लिए ठीक है.”
तेज फ़ायरों से मुक़ाबला
“दो-दो की कड़ी में चार हैलिकॉप्टरों को वहाँ उतरना था. जब पहले दो हैलिकॉप्टर उतरने लगे तो उनकी तरफ़ तेज़ फ़ायर आया लेकिन वो हैलिकाप्टर्स की आवाज़ में सुनाई नहीं दिया. लेकिन जब उन्होंने दूसरे हैलिकॉप्टर्स के लिए रोशनी करने की कोशिश की तो उनपर इतना तेज़ फ़ायर आया कि उन्होंने ऐसा करने का इरादा छोड़ दिया.”
“इसकी वजह से जब हैलिकॉप्टर्स की दूसरी टीम आई तो उन्हें दिखा ही नहीं कि उन्हें उतरना कहाँ है. उन्होंने वापस जाने का फ़ैसला किया. उन हैलिकॉप्टर्स पर 53 कमांडोज़ सवार थे. जब ये कुछ समय बाद वापस आए तो इन पर इतनी ज़बरदस्त गोलीबारी हुई कि हैलिकॉप्टर्स में बड़े बड़े छेद हो गए. बाद में गिना गया कि उस हैलिकॉप्टर में 17 छेद थे, लेकिन वो इसके बावजूद सिख एलआई के 31 जवानों को वहाँ उतारने में सफल हो गए.”
जैसे ही पहला हैलिकॉप्टर सतह के 10 मीटर ऊपर आया, सभी कमांडोज़ रस्सी के सहारे नीचे उतरने लगे. लेकिन जैसे ही कैप्टेन रनबीर भदौरिया नीचे कूदे उनका पैर लटकी हुई रस्सी में फंस गया. इस समय सीतापुर में रहे भदौरिया बताते हैं, “एयरबॉर्न ऑपरेशन में परंपरा है कि सबसे सीनियर व्यक्ति सबसे पहले नीचे छलांग लगाता है. हैलिकॉप्टरों के तेज़ चलते पंखों की वजह से उतरने वाली रस्सी मेरे पैरों में लिपट गई. मेरी पीठ के ऊपर मेरा पैक था जिसमें मेरा कमांडो डैगर था. लेकिन मैं उसे निकाल नहीं सकता था. मैं देख रहा था कि हमारे 35 आदमी नीचे उतर गए थे.”
प्रभाकरण का ठिकाना
“जब अंतिम आदमी उतरने लगा तो मेरे पास सिर्फ़ दो ही विकल्प थे कि मैं रस्सी के सहारे हैलिकाप्टर में वापस चला जाऊँ या रस्सी पकड़े पकड़े ही वापस बेस पर पहुंच जाऊं. मैंने सोचा मेरे साथी सोचेंगे कि साहब सबसे पहले तो नीचे कूदे लेकिन फ़ायर से डर कर अंदर चले आए. मैं बहुत दुविधा में था कि क्या करूँ. लेकिन तभी ऊपर वाले ने मेरी मदद की और मेरे पैरों में लिपटी रस्सी निकल गई और मैं नीचे उतर गया.”
मेजर शेओनान सिंह और उनके साथी उस इलाके में बढ़ने लगे जहाँ अनुमान था कि प्रभाकरण अपने साथियों के साथ मौजूद था. रास्ते में उन्हें एक अलग थलग घर दिखाई दिया. उन्होंने जब दरवाज़ा खटखटाया तो स्थानीय पॉलिटेक्निक में पढ़ाने वाले एक प्रोफ़ेसर ने दरवाज़ा खोला.
उन्होंने उनसे पूछा कि प्रभाकरण का ठिकाना कहाँ हैं. उस प्रोफ़ेसर ने उन्हें चेताया भी कि प्रभाकरण हमेशा 100-150 लोगों से घिरे रहते हैं. उनके सैनिक उनसे पार नहीं पा पाएंगे. मेजर शेओनान ने प्रोफ़ेसर से कहा कि वो उन्हें वहाँ पहुंचने का रास्ता बताएं. उन्होंने उनके दामाद को बंधक बना लिया और उनसे कहा कि वो उन्हें एलटीटीई के मुख्यालय की तरफ ले चले. उनके पीछे एक कमांडो को लगा दिया गया और साफ़ कर दिया गया कि अगर उनपर गोली चलाई जाती है तो वो उनके दामाद को गोली से उड़ा देंगे.
मेजर शेओनान सिंह बताते हैं कि अभी वो कुछ ही दूर गए होंगे कि उनपर तीन तरफ़ से गोलियाँ बरसने लगीं. प्रोफ़ेसर के दामाद के सिर के दामाद पर राइफ़ल ताने कमांडो ने ट्रिगर दबाया और दामाद वहीं ढेर हो गया.
वो ख़ूनी संघर्ष
सुशांत बताते हैं कि जब भारतीय सैनिक पिरमपडी लेन में पहुंचे तो एक तमिल लड़ाका एक घर से निकल कर अचानक उनकी तरफ बढ़ा. जब वो सिर्फ़ तीन फ़ीट की दूरी पर था, शेओनान ने उस पर फ़ायर किया और उनकी पूरी वर्ती उसके ख़ून से तरबतर हो गई.
इसके बाद कैप्टेन रनवीर भदौरिया के साथ एक ऐसी घटना हुई जिसने उन्हें हिला कर रख दिया. जब वो एक घर में घुसे तो उसकी रसोई में एक महिला अपने दो साल के बच्चे के साथ खड़ी थी. भारतीय कमांडोज़ ने रेफ़्लेक्स एक्शन में फ़ायर किया जिसमें वो महिला मारी गई. भदौरिया उसे दो साल के बच्चे पर गोली नहीं चला सके क्योंकि उन्हें अपना बेटा याद आ गया जिसकी उम्र भी करीब करीब उस बच्चे जितनी ही थी. लेकिन उनके साथ चल रहे एक सैनिक ने उस बच्चे को हमेशा के लिए सुला दिया.
कर्नल रनवीर भदौरिया याद करते हैं, “जब एक बार फ़ायर खुल जाता है तो आदमी देखता नहीं कि किधर गोली जा रही है. मेरी तो हिम्मत नहीं हो रही थी कि किसी को मारो. मैं बाहर की तरफ़ निकल आया. जब मैं वापस गया तो वो बच्चा मरा हुआ था. जंग में ये सब चीजें हो जाती हैं जिसका दुख हमेशा रहता है. कई बार अकेले बैठ कर उस घटना के बारे में सोचता हूँ लेकिन कई बार गेहूँ के साथ घुन भी पिस जाता है.”
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भारतीय सैनिकों की हार
साढ़े दस बजे के आसपास भारतीय सैनिकों पर विश्वविद्यालय के मैदान से एमएमजी फ़ायर आने लगा. यो वही एमएमजी थी जिसे वो सिख एलआई के मेजर बीरेंद्र सिंह और उनके 31 सैनिकों के पास छोड़ आए थे. क्या इसका अर्थ ये हुआ कि क्या बीरेंद्र सिंह और उनके सैनिक मारे जा चुके थे?
सुशांत सिंह बताते हैं, “आख़िर में सिर्फ़ तीन सैनिक ज़िंदा बचे..उन्होंने तय किया कि वो तभी बच सकते हैं जब वो एलटीटीई के सैनिकों पर धावा बोल कर उनके कब्ज़े में चली गई एमएमजी को वापस छीन लें. उनमें से दो ने उन पर संगीनों से हमला किया क्योंकि उनकी सारी गोलियाँ ख़त्म हो चुकी थीं.”