दिल्ली की सत्ता के लिए बिहार में महासंघर्ष की जमीन तैयार हो गई है। सियासी ताकतें दो धड़ों में बंट चुकी हैं। दोनों गठबंधनों में सीट बंटवारे के बाद महासमर की तस्वीर धीरे-धीरे साफ होने लगी है। दोनों तरफ की मजबूतियां और कमजोरियां भी पर्दे के बाहर निकलने लगी हैं। महागठबंधन में भारी माथापच्ची के बाद सीटों का झंझट खत्म होता दिख रहा है, किंतु दिलों का पूरी तरह मिलन अभी बाकी है। कांग्रेस व राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की सियासी चालों में पश्चिम-पूर्व का फर्क नजर आ रहा है, जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के घटक दलों के बीच प्रत्यक्ष तौर पर कोई दूरी-दीवार नहीं दिख रही।ऐसे में हालात बता रहे कि एकजुट राजग से बिखरे विपक्ष का मुकाबला होगा।
दोनों गठबंधनों के सामने बड़ी चुनौतियां
दोनों गठबंधनों (राजग और महागठबंधन) में कद्दावर प्रत्याशियों की लंबी कतार है। चुनौतियां भी उतनी ही बड़ी हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव से अलग सत्ता पक्ष के रणनीतिकारों के सामने जीत के नए फॉर्मूले तैयार करने की चुनौती है तो विपक्ष के सामने गठबंधन के सहारे सियासी गणित को साधने की। पिछले साल अररिया संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजे ने विपक्ष को काफी हद तक उत्साहित कर दिया है, किंतु महागठबंधन के घटक दलों के बीच स्वाभाविक तालमेल की कमी और दूसरे के वोट बैंक में परस्पर सेंधमारी की कोशिश के कारण अबकी बार दोस्ती खतरे के निशान के करीब से गुजर रही है।
यहां से तय होगी हार-जीत की दिशा
बिहार में छह केंद्रीय मंत्रियों एवं राज्य सरकार के तीन मंत्रियों समेत कई दिग्गज मैदान में हैं। कुछ संसदीय सीटों का राष्ट्रीय महत्व भी है। वैशाली से रघुवंश प्रसाद सिंह, सासाराम से लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार, पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा और भाजपा से रविशंकर प्रसाद, पाटलिपुत्र से केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव के मुकाबले लालू प्रसाद की पुत्री डॉ. मीसा भारती की सियासी प्रतिष्ठा दांव पर लगी होगी।
इसी तरह केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और वामदलों के लिए उम्मीद बन चुके कन्हैया कुमार (भाकपा प्रत्याशी) के बीच संघर्ष के चलते देशभर की निगाहें बेगूसराय पर टिकी रहेंगी। पूर्वी चंपारण में केंद्रीय मंत्री राधामोहन सिंह, बक्सर में अश्विनी कुमार चौबे और आरा में राजकुमार सिंह की किस्मत दांव पर लगी हैं।
तेजस्वी, मांझी व कुशवाहा की भी होगी परख
राजद प्रमुुख लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में पहली बार तेजस्वी यादव की तेजस्विता की परीक्षा भी होनी है। लालू की कृपा से मधेपुरा के मैदान में उतरने जा रहे शरद यादव का रास्ता भी जीत-हार से तय होगा। राजग छोडऩे के बाद मंझधार में फंसे पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के दमखम और सत्ता से दूर हो चुके उपेंद्र कुशवाहा की परख भी होनी है।
मायावती भी डाल सकती हैं फर्क
मायावती की नजर बिहार के करीब डेढ़ करोड़ दलित आबादी पर है। उन्हें बअहुजन समाज पार्टी (बसपा) को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करना है और तेजस्वी को अपना आधार बचाना है। लखनऊ जाकर तेजस्वी यादव का मायावती से आशीर्वाद मांगना भी काम नहीं आया। बसपा ने बिहार की सभी 40 संसदीय सीटों पर प्रत्याशी उतारने का संकेत दे दिया है।
बसपा के प्रदेश अध्यक्ष भरत बिंद ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके महागठबंधन से अलग चलने का ऐलान कर दिया है। दर्जन भर सीटों पर प्रत्याशियों की घोषणा भी कर दी है। बाकी पर कवायद जारी है। अनुसूचित जातियों और पिछड़ों के वोट बैंक को अपना आधार बताने वाले महागठबंधन के लिए यह शुभ संकेत नहीं है। बसपा प्रत्याशी किसके वोट बैंक में सेंध लगाएंगे, यह तेजस्वी को भी अच्छी तरह पता है।
वैशाली में गुरु-शिष्य का मुकाबला
सबसे मजेदार मुकाबला वैशाली में होना है, जहां सियासत के गुरु-शिष्य के बीच भिड़ंत होगी। राजद प्रत्याशी एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह के खिलाफ जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने विधान पार्षद दिनेश सिंह की पत्नी वीणा देवी को प्रत्याशी बनाया है। दिनेश और वीणा की पहचान रघुवंश के शिष्यों में होती है। उनके ही मकान में रहकर रघुवंश वैशाली की स्थानीय राजनीति करते रहे हैं। नब्बे के दशक में बिहार पीपुल्स पार्टी से सियासी सफर शुरू करने वाले दिनेश एक वक्त में रघुवंश के चुनाव प्रबंधन का काम भी देखा करते थे। अबकी समीकरण ध्वस्त करने की कोशिश करेंगे।
शरद को क्या मिल पाएगा संबल
सियासत में कई मोड़ और दौर से गुजर चुके शरद यादव को लालू ने आखिरकार पनाह दे दी है। जदयू से अलग होकर अपनी अलग पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल (लोजद) बनाने वाले इस समाजवादी नेता को मधेपुरा से राजद का प्रत्याशी बनना होगा। दूसरी तरफ जदयू के दिनेश चंद्र यादव होंगे, जो बिहार सरकार में मंत्री हैं। मुकाबला जितना दिलचस्प होगा उतनी ही अधिक चर्चा देशभर में होगी।
सियासत में समझौता करना कितना कठिन होता है, यह शरद यादव से बेहतर कोई दूसरा नहीं जान सकता। कभी उसी मधेपुरा से लालू प्रसाद को पटखनी देने वाले शरद अबकी लालू की लालटेन पकड़े नजर आएंगे। 2014 में राजद के टिकट पर चुनाव लड़ रहे पप्पू यादव से परास्त हो चुके शरद का इस बार भी पप्पू से पीछा नहीं छूटने वाला है, क्योंकि उन्होंने भी मधेपुरा से चुनाव लडऩे का ऐलान कर दिया है। दिनेश चंद्र यादव की गिनती भी शरद यादव के करीबियों में होती रही है।
मिनी मास्को में दो विचारों की लड़ाई
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की भूमि बेगूसराय में इस बार प्रत्याशियों के बीच नहीं, बल्कि दो विचारधाराओं में मुकाबला होगा। वाम विचारों की भूमि के चलते इसे बिहार का मिनी मास्को कहा जाता है। भाजपा प्रत्याशी गिरिराज सिंह के मुकाबले भाकपा के कन्हैया कुमार ने पिछले छह महीने के दौरान कठिन संघर्ष की जमीन तैयार कर दी है। राजद के तनवीर हसन तीसरा कोण बनाते दिख रहे हैं। वामदलों की उम्मीद थी कि महागठबंधन की ओर से कन्हैया पर सहमति बनने के बाद आमने-सामने की टक्कर होगी, किंतु लालू प्रसाद को यह रास नहीं आया। कन्हैया के नाम पर वह सहमत नहीं हो सके। वजह जो भी हो, लेकिन इतना तय है कि यहां से जीतने और हारने वालों की चर्चा आगे के कई वर्षों तक होती रहेगी।