यहा पर पति की सलामती के लिए नहीं भरती हैं मांग में सिन्‍दूर, जानकर आप जायेगें चौंक…

इस समुदाय के लोग ताड़ के पेड़ों से ताड़ी निकालने का काम करते है। ताड़ के पेड़ 50 फीट से ज्यादा ऊंचे होते है तथा एकदम सपाट होते है। इन पेड़ों पर चढ़ कर ताड़ी निकालना बहुत ही जोखिम का काम होता है। ताड़ी निकलने का काम चैत मास से सावन मास तक, चार महीने किया जाता है। गछवाह महिलाये (जिन्हे कि तरकुलारिष्ट भी कहा जाता है ) इन चार महीनो में ना तो मांग में सिन्दूर भरती है और ना ही कोई श्रृंगार करती है। वे अपने सुहाग कि सभी निशानिया तरकुलहा देवी के पास रेहन रख कर अपने पति कि सलामती कि दुआ मांगती है।

हमारे देश भारत में आज भी कुछ ऐसी परम्पराय जीवित है जो हमे अचरज में डालती है। ऐसी ही एक परम्परा है पति कि सलामती के लिए पत्नी का विधवा का जीवन जीना। यह परम्परा गछवाह समुदाय से जुडी है। यह समुदाय पूर्वी उत्तरप्रदेश के गोरखपुर, देवरिया और इससे सटे बिहार के कुछ इलाकों में रहता है। ये समुदाय ताड़ी के पेशे से जुड़ा है

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तरकुलहा देवी गछवाहों कि इष्ट देवी है। तरकुलहा देवी का मंदिर गोरखपुर से 20 किलोमीटर कि दुरी पर है। यह हिन्दुओं का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। गछवाह महिलाये चैत महीने कि राम नवमी से लेकर सावन कि नागपंचमी तक इसी तरह रहती है। ताड़ी का काम खत्म होने के बाद सारे गछवाह नाग पंचमी के दिन तरकुलहा देवी के मंदिर में इकट्ठे होते है। गछवाह महिलाये तरकुलहा देवी कि पूजा करने के बाद अपनी मांग भरती है। पूजा के बाद सामूहिक गोठ का आयोजन होता है। इस पूजा में पशु बलि देने का भी रिवाज़ है। गछवाहों में यह परम्परा कब से चली आ रही है इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है। अधिकतर गछवाहों का कहना है कि वो इस परम्परा के बारे में अपने पूरवजों से सुनते आ रहे है। वैसे तो हिन्दू धर्म में किसी महिला के द्वारा अपने सुहाग चिह्न को छोड़ना अपशुगन माना जाता है पर गछवाहों में इसे शुभ माना जाता है।

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