शोयना गांव के लोग अभी भी पूरे साल समुद्र से मछलियां पकड़ते हैं लेकिन इसकी मात्रा ज्यादा नहीं होती। मछलियों को सबसे पास के बाजार पहुंचाने में कम से कम 8 से 10 घंटे लगते हैं। गांव के बाथहाउस में महिलाओं और पुरुषों के नहाने के दिन भी तय हैं। मंगलवार-बुधवार को महिलाएं और गुरुवार-शुक्रवार को पुरुषों के नहाने के दिन हैं। हर शनिवार को गांव में एक डांस उत्सव होता है जिसमें पास के मिलिट्री बेस के सैनिक भी शामिल होते हैं। रूस में व्हाइट सी बीच पर बसा शोयना गांव धीरे-धीरे जमीन में धंस रहा है। बीच पर बढ़ रही रेत घरों के अंदर घुस रही है। कई लोग ग्राउंड फ्लोर छोड़कर दूसरी मंजिल पर रहने लगे हैं। घरों के अंदर इतनी रेत जमा हो गई है कि इसे निकालने के लिए बुलडोजर मंगाना पड़ता है।

शोयना में रह रहीं अन्ना गोलुत्सोवा बताती हैं, “ग्राउंड फ्लोर पर रेत का अंबार लग गया है। इसके चलते हमें पहली मंजिल पर शिफ्ट होना पड़ा। रेत निकालने के लिए किराए से बुलडोजर मंगाएंगे। लेकिन अगले साल सब वैसा ही हो जाएगा। रेत हमारे घरों को खत्म कर रही है।” स्थानीय लोगों के मुताबिक, 20 से ज्यादा घर रेत में दब चुके हैं। एक घर को तो टिब्बों ने इस कदर ढंक लिया था कि लोगों को ऊपर की मंजिल से बाहर आना पड़ा।
शोयना गांव द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक फिशिंग पोर्ट के रूप में विकसित हुआ। सोवियत इतिहास बताता है कि यहां के मछुआरे काफी तादाद में मछलियां पकड़ा करते थे। हालांकि ज्यादा मछली पकड़े जाने का क्षेत्र के पारिस्थितकी तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ा। ट्रॉलरों (मछली पकड़ने का जहाज) ने समुद्र की तलहटी से सिल्ट और शैवालों को खत्म कर दिया। इसके चलते रेत की जमीन से पकड़ कम होने लगी।
रूस में वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड के तहत मरीन बायोडायवर्सिटी प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर सर्गेई उवारोव के मुताबिक- समुद्र की सतह पर जो बदलाव आए हैं, वे संभवत: शोयना से होकर व्हाइटी सी में मिलने वाली नदी की वजह से आए होंगे। गर्मियों के दिनों में शोयना तक छोटे प्लेन और हेलिकॉप्टर से ही पहुंचा जा सकता है। 81 साल की एवदोकिया सखारोवा बताती हैं कि आज रेगिस्तान जैसा दिखने वाला गांव कभी काफी हरा-भरा था। लोग यहां खेती करते थे। कभी यहां जिंदगी थी जबकि आज केवल रेत बची है। कभी यहां से 70 जहाज मछली पकड़ने समुद्र में जाते थे। कभी गांव में 800 लोग रहा करते थे, आज महज 285 लोग रह रहे हैं।
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शोयना छोड़कर चला जाया जाए या यहीं पर रुका जाए, इस पर लोगों की अपनी-अपनी राय है। फेडरल असिस्टेंस प्रोग्राम के तहत गांववालों को कुछ सुविधाएं भी दी जा रही हैं। कई लोग पढ़ाई, काम या यात्रा के लिए गांव छोड़कर जा चुके हैं लेकिन कई वापस भी लौट आए। 21 साल के पावेल कोटकिन बताते हैं कि मैंने पढ़ाई के लिए शहर में चार साल गुजारे लेकिन वापस लौट आया। मैं यहां जिंदगी गुजारना चाहता हूं। मैं इसके बिना रह नहीं सकता।
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