शीर्ष अमेरिकी मेडिकल संस्था सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने पिछले महीने एक अध्ययन में बताया कि कोरोना के मरीजों में करीब 40 फीसद ऐसे लोग हैं जिनमें बहुत हल्के लक्षण हैं या बिल्कुल भी लक्षण नहीं हैं। इस प्रवृत्ति को कई वायरोलॉजिस्ट दुनिया के लिए अच्छा संकेत मान रहे हैं।
सैन फ्रांसिस्को की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलीफोर्निया में संक्रामक रोगों की विशेषज्ञ और शोधकर्ता डॉ मोनिका गांधी बिना लक्षण वाले संक्रमित लोगों की ज्यादा दर को व्यक्तियों के लिए और समाज के लिए अच्छी बात मान रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि यही प्रवृत्ति इस महामारी के खात्मे की वजह बनेगी।
अबूझ पहेली नहीं रहा वायरस: सात महीने से दुनिया को परेशान किए हुए इस पिद्दी से वायरस के बारे में कई जानकारियां सामने आने लगी हैं। शोध में इस महामारी के कई पैटर्न और संकेत दिखे हैं। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में इसके संक्रमण की दर अलग-अलग है। बच्चों में बहुत हल्का असर दिख रहा है। सबसे उम्मीदों वाली बात असामान्य रूप से उन लोगों की बड़ी हिस्सेदारी हैं जिनमें हल्के या लक्षण दिख ही नहीं रहे हैं।
संकेत दिखा रहे सुनहरी तस्वीर: कोरोना वायरस से मिले संकेत वैज्ञानिकों को अलग-अलग दिशा में सोचने को विवश कर रहे हैं। कुछ लोग इसकी वजह रिसेप्टर सेल्स को मान रहे हैं जिनके इस्तेमाल से वायरस किसी इंसान के शरीर में प्रवेश करता है। कुछ वैज्ञानिक व्यक्ति की आयु और उसकी आनुवंशिकी पर ध्यान केंद्रित किए हुए हैं। कुछ वैज्ञानिकों का तर्क है कि जो लोग नियमित रूप से मास्क का इस्तेमाल कर रहे हैं वे अधिकांश वायरस को फिल्टर करने में सक्षम हो रहे हैं। लिहाजा उनमें हल्के या कोई लक्षण नहीं दिख रहे हैं। इसमें सबसे चौंकाने वाली थ्योरी हाल ही सामने आई जिसमें कहां गया कि यह बहुत संभव है कि कुछ लोग आंशिक इम्यूनिटी के साथ हमारे बीच में घूम रहे हों।
एक परिसंकल्पना यह भी: हाल के अध्ययनों में यह बात कही गई कि मेमोरी टी सेल्स के चलते दुनिया का एक वर्ग इस वायरस से आंशिक रूप से सुरक्षित हो चुका है। टी सेल्स हमारे प्रतिरक्षी तंत्र का ऐसा हिस्सा होती हैं जो किसी खास तरीके के हमलाकर की पहचान के लिए उसे प्रशिक्षित करती हैं। बचपन में लगे टीकों के संदर्भ में इस सोच को मजबूती मिलती दिखती है। टी सेल्स की अधिक है प्रतिरक्षा अवधि हाल के अध्ययन बताते हैं कि कोरोना वायरस के एंटीबॉडी कुछ लोगों में दो से तीन महीने में खत्म हो सकते हैं। लेकिन टी सेल्स सालों तक इंसान की प्रतिरक्षा कर सकते हैं। हालांकि एंटीबॉडी के मुकाबले टी सेल्स का टेस्ट ज्यादा श्रमसाध्य है।
बचपन की वैक्सीन का असर: एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि जिन लोगों ने कुछ साल पहले निमोनिया का टीका लगवा रखा है उनमें कोरोना वायरस से संक्रमण का खतरा 28 फीसद कम हो सकता है। जिन्होंने पोलियो की वैक्सीन लगवाई है उनमें यह खतरा 43 फीसद कम हो जाता है।
उम्मीद से कहीं ज्यादा: तमाम पहलुओं को देखते हुए स्वीडन के कारोलिंसका इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता हंस गुस्ताफ जुंगरेन के साथ अन्य का मानना है कि कोरोना वायरस से इम्यून लोगों की संख्या तमाम शोधों में बताई जा रही संख्या से उल्लेखनीय रूप से कहीं ज्यादा हो सकती है। जनस्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह बहुत अच्छी खबर है। कुछ विशेषज्ञ इससे आगे की सोच रखते हैं। उनकी सोच का आधार स्वीडन और मुंबई है। जहां कोई व्यापक लॉकडाउन नहीं लगा, न ही मास्क पर बहुत जोर दिया गया लेकिन संक्रमण दर बहुत कम बनी रही। मुंबई की झुग्गी बस्तियों में संक्रमण की उच्च दर के बावजूद महामारी गंभीर रूप नहीं ले सकी। विशेषज्ञों के अनुसार इसकी वजह पहले से मौजूद इम्यूनिटी हो सकती है।
ज्यादा मॉस्क ज्यादा एसिम्प्टोमेटिक: वैज्ञानिकों ने अपनी दो केस स्टडी में पाया कि जिस स्थान पर ज्यादा और नियमित रूप से लोग मॉस्क का इस्तेमाल करते हैं, उनमें बिना लक्षण वाले कोरोना वायरस संक्रमितों की दर ज्यादा होती है। दो क्रूज शिपों पर वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया। डायमंड प्रिंसेज में मौजूद लोगों ने मॉस्क का इस्तेमाल नहीं किया। यहां 47 फीसद मरीज बिना लक्षण वाले मिले। अर्जेंटीना की क्रूज शिप पर लोगों ने मॉस्क का इस्तेमाल किया और वहां मिले संक्रमितों में बिना लक्षण वालों की हिस्सेदारी 81 फीसद रही।