उत्तर भारत के शहरों में बढ़ते वायु प्रदूषण से सुप्रीम कोर्ट और एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) के साथ-साथ केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भी खासा चिंतित है। दरअसल ईपीसीए या सीपीसीबी (केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड) प्लान बना सकते हैं, दिशानिर्देश दे सकते हैं, उन पर अमल कराना राज्य सरकारों का काम है। राजनेता निहित स्वार्थो के लिए सख्त कदम नहीं उठाते। इसी ढ़िलाई के चलते स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान यानी ग्रेप को सख्ती से लागू कराने के मामले में भी वही समस्या आ रही है। जिन-जिन राज्यों में इसे लागू किया गया है, वहां की सरकारों और प्रदूषण बोर्ड को इसके क्रियान्वयन और कार्रवाई का पैमाना स्वयं निर्धारित करना है। अगर ग्रेप को सख्ती से लागू किया गया तो निश्चित तौर पर सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। मेरा सुझाव रहा है कि सभी स्तरों पर जिम्मेदारी तय कर दी जाए, लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों और राज्यों पर भी सख्त एक्शन हो। हालांकि यह भी विडंबना ही है कि राज्य सरकारें अस्थायी व्यवस्था तो करती हैं, लेकिन स्थायी उपाय करने में ढीली पड़ जाती हैं। मसलन, दिल्ली में लागू हुई ऑड-इवेन एक अस्थायी व्यवस्था थी। ऐसी व्यवस्था सिर्फ तभी के लिए प्रासंगिक हैं जब स्थिति आपातकालीन हो। उस स्थिति में तो स्कूल-कॉलेज भी बंद किए जा सकते हैं, लेकिन ऐसा कुछ दिन के लिए ही संभव है। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकार में से कोई भी एनसीआर की बिगड़ती हवा को लेकर गंभीर नहीं है।
दिल्ली की स्थिति भी बहुत संतोषजनक नहीं है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि नवंबर 2016 से लेकर अब तक ईपीसीए अनगिनत बैठकें कर चुका है, लेकिन दिल्ली को छोड़ कोई राज्य अपने यहां की आबोहवा में कुछ सुधार नहीं कर पाया है। बेहतर ढंग से वायु प्रदूषण की निगरानी तक नहीं हो पा रही है। सीपीसीबी और दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति (डीपीसीसी) के अलावा किसी राज्य प्रदूषण बोर्ड ने ठीक से पेट्रोलिंग टीमों का गठन तक नहीं किया है।
दूसरी तरफ पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने के मामले में भी राज्य सरकारों की भूमिका काफी मायने रखती है। सरकारों को चाहिए कि वोट बैंक के साथ-साथ अपने मतदाताओं के स्वास्थ्य की भी चिंता करें। इसके अतिरिक्त जनसहयोग भी बहुत महत्वपूर्ण है। जन जागरूकता अभियान चलाया जाना चाहिए। दिल्ली सरकार ने अब इस दिशा में कुछ गंभीरता दिखाई है।
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