लोकसभा चुनाव 2019 में नरेंद्र मोदी के विजय रथ को यूपी में रोकने के लिए सपा-बसपा ने गठबंधन का एलान कर दिया है. इस गठबंधन में कांग्रेस को जगह नहीं दी गई है, लेकिन चौधरी अजित सिंह की पार्टी आरएलडी को भी खास तवज्जो नहीं दी गई है. हालांकि, ऐसा लगता है कि सीट शेयरिंग फॉर्मूले के तहत आरएलडी के लिए 2 सीटें छोड़ी गई हैं और बाकी 2 सीटें बैकडोर से भी दी जा रही हैं, लेकिन इस पर चौधरी अजित सिंह सहमत नहीं है. वो चाहते हैं कि उन्हें सीधे तौर पर चार सीटें दी जाएं.
सीट शेयरिंग फॉर्मूले तहत सूबे की कुल 80 लोकसभा सीटों में से सपा-बसपा- दोनों पार्टियां 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी. बाकी चार सीटों में से दो सीटें आरएलडी के लिए छोड़ी गई हैं. इसके अलावा दो सीटें अमेठी और रायबरेली की हैं, जहां सपा-बसपा गठबंधन कांग्रेस के खिलाफ चुनाव मैदान में अपने उम्मीदवार नहीं उतारेगी. बता दें कि अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से सोनिया गांधी सांसद हैं.
वहीं, आरएलडी की ओर से छह सीटें मांगी जा रही हैं. इनमें बागपत, मथुरा, कैराना, हाथरस, मुजफ्फरनगर और अमरोहा सीट शामिल हैं. सूत्रों के मुताबिक सपा-बसपा गठबंधन आरएलडी को बागपत और मुजफ्फरनगर सीटें देना चाहता है. इसमें मुजफ्फरनगर से चौधरी अजीत सिंह और बागपत सीट से उनके बेटे जयंत चौधरी चुनाव लड़ सकते हैं.
क्या है पेच?
मुजफ्फरनगर और बागपत के अलावा भी सपा-बसपा दो सीटें आरएलडी के देना चाहती है, लेकिन वो सीटें सीधे तौर पर उनकी नहीं होंगी. सपा-बसपा गठबंधन आरएलडी को कैराना मॉडल के तहत दो सीटें देने को राजी है. इसके मुताबिक आरएलडी के उम्मीदवारों को सपा और बसपा के चुनाव चिन्ह पर चुनावी मैदान में उतरना होगा. एक तरह से आधिकारिक तौर पर वो सपा और बसपा के उम्मीदवार होंगे. इसके लिए उन्हें मथुरा और कैराना सीट सुझाई गई हैं. इनमें से एक सीट पर आरएलडी का उम्मीदवार सपा के सिंबल पर लड़ेगा तो दूसरी सीट पर बसपा के हाथी निशान पर आरएलडी का उम्मीदवार मैदान में होगा.
क्या है रणनीति?
बताया जा रहा है कि सपा-बसपा के इस फॉर्मूले के पीछ सोची समझी रणनीति है कि चुनाव नतीजे के बाद आरएलडी गठबंधन से अलग फैसला न ले सके. दरअसल, आरएलडी पहले भी कांग्रेस और बीजेपी दोनों दलों की सरकार में शामिल रही है. ऐसे में उन्हें लगता है कि चुनाव के बाद अजित सिंह अपनी अलग राह चुन सकते हैं. इसी के चलते उन्हें महज दो सीटें दी जा रही है और बाकी दो सीटों की डोर सपा-बसपा अपने पास रखना चाहती हैं.