कोरोना महामारी के इस दौर में सोशल मीडिया में मददगारों की अनेक तस्वीर सामने आ रही है जिसमें बड़ी बड़ी महँगी गाड़ियों के बैकग्राउंड के साथ कई सफेदपोश हाथों में सफेद दस्ताने पहने एक छोटा सा भोजन का पैकेट, हाथ जोड़े गरीबों को देते नजर आ रहे है, लेकिन भाई सुशील दुबे की ये तस्वीर कुछ अलग ही बयान कर रही है। मददगार खुद ही हाथ जोड़े खड़ा है और गरीब के चहरे पर मुस्कराहट इस बेचारगी में भी उसकी खुद्दारी की जीत को दिखला रही है।
दूसरों को दीन हीन गरीब असहाय मानकर दान करना दान की पवित्रता सात्विकता को नष्ट कर देता है एहसान बड़प्पन जताकर दूसरों को निम्न कोटि का समझकर उपेक्षा या तिरस्कार के साथ अगर आप मदद कर रहे हैं तो यह ठीक नहीं है आज हालात और लॉक डाउन की मजबूरी के चलते ये इनकी जरूरत। मजबूरी हो सकती है लेकिन यह भी हमारे ही समाज का एक अंग है इसलिए भई सुशील दुबे द्वारा एक तरफ ज़रूरतमंदों की मदद की जा रही है तो दूसरी तरह उनको पूरा सम्मान दिया जा रहा है जिससे इस मदद की पवित्रता और सात्विकता ही बढ़ेगी।
सुशील दुबे द्वारा धरातल पर पहुंचकर समाज के गरीब मजबूर बेसहारा लोगों का सम्मान बढ़ाकर ना सिर्फ मदद की जा रही है बल्कि यह एक प्रकार की एक ऐसी पौध तैयार की जा रही हैं जो कल इस महामारी से निकलने के बाद हमारे पूरे समाज की उन्नति कल्याण और विकास में सहायक होगी। और कुछ ऐसे ही ही बनता है काम करने वालों का एक बड़ा चक्र। हम जिनकी मदद करते हैं। उनमें से कुछ जरूर आगे दूसरों की मदद करते हैं। इस तरह मदद का एक चक्र चलता है।
सुशील दुबे की अपनी मुस्कराती ज़िंदगी की सफलता का राज़ भी यही है। उन्हें ये पता है कि एक हाथ से देने वाले से कही ज़्यादा बड़ी अहमियत गरीब के दो हाथ उठा कर मांगी गई दुआ में है। इसलिए वो अपने दोनों हाथों को जोड़कर लॉक डाउन की मार झेल रहे इंसान के लिए मददगार तो बने है लेकिन अपने लिए दुआओं की दौलत भी बटोर रहे है। यही जज़्बा और यही सही तरीका है जब आप दूसरों की मदद करते है तो उनकी खुद्दारी को सलामत रखते हुए उनकी मदद करिए। उन्हें गरीब मत बनाइये और खुद को मालदार मत दिखाइए। लॉक डाउन की इस तस्वीरे ने ये साबित कर दिया दान देने वाला नही दान लेने वाला बड़ा होता है।