फिल्म इंडस्ट्री में आने को लेकर हर किसी की अपनी दिलचस्प कहानी होती है। ऐसी ही एक कहानी गीतकार जावेद अख्तर की भी रही। दिलीप कुमार की फिल्म देखकर उन्हें लगा कि वह एक दिन महान फिल्में बनाएंगे। एंकर सायरस ब्रोचा के शो में बातचीत में जावेद अख्तर ने बताया कि बचपन में मेरे जीवन में दो चीजों का प्रभाव रहा, एक तो लेखन, क्योंकि मेरे माता-पिता और उससे पहले की पीढ़ी लेखकों की थी। दूसरी तरफ जिस दिन पहली कक्षा में मेरा दाखिला लखनऊ के सेंट मेरीज स्कूल में हुआ, मुझसे बड़ों ने पूछा की शाम में कहां जाना चाहोगे, जू में या फिल्म देखने।
मैंने फिल्म चुना और आन (1952) फिल्म देखी। फिल्म में दिलीप कुमार घोड़े पर बैठे जा रहे थे, इतनी अच्छी आवाज में गाने गा रहे हैं। मुझे तब नहीं पता था कि मोहम्मद रफी की आवाज है। मुझे लगा कि यही सही है, बड़े होकर तो मैं भी दिलीप कुमार ही बनूंगा। बच्चों को जब फिल्मों का शौक होता है, तो वह एडिटर, निर्देशक और कैमरामैन नहीं बनना चाहते हैं। वह दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन या शाह रुख खान बनना चाहते हैं। मेरी उम्र में तो दिलीप कुमार थे। फिर मैंने राज कपूर, देवआनंद को देखा।
एक तरफ फिल्मों का प्रभाव हो, दूसरी तरफ साहित्य पढ़ते हों, तो आपका दिल चाहेगा की फिल्मों में आए। यह लाजिकल है, क्योंकि अगर आपको कोई कहानी या उपन्यास पसंद है, तो आप देखना चाहेंगे कि वह स्क्रीन पर कैसा लगेगा। कम उम्र में ही तय कर लिया था कि फिल्मों में जाऊंगा और फिल्में बनाऊंगा। राज कपूर और गुरु दत्त को असिस्ट करूंगा। सब सीखकर महान फिल्में बनाऊंगा।
किसी ने कहा कि अगर इतने स्पष्ट हो, तो इंतजार क्यों करना अभी चले जाओ। मैंने कहा नहीं, इसका कारण यह था कि उन दिनों जो फिल्मों की मैगजीन आती थी, उसमें फिल्म इंडस्ट्री के लोगों का एक पेज होता था, जिस पर बायो डेटा लिखा होता था। उसमें शिक्षा का जिक्र भी होता था। मैं चाहता था, जब मेरा इंटरव्यू छपे तो उसमें स्नातक लिखा हो। इसलिए मैंने ग्रेजुवेशन की। फिर बाम्बे (अब मुबंई) आ गया।
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