अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बाजार में डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट लगातार जारी है. गुरुवार सुबह डॉलर के मुकाबले रुपया 72 के स्तर के पार पहुंच गया. जानकारों का दावा है कि रुपये में यह गिरावट वैश्विक कारणों से देखने को मिल रही है.
क्यों गिर रहा रुपया?
अमेरिका और चीन के बीच जारी ट्रेड वॉर और इसके चलते वैश्विक स्तर पर लोगों का डॉलर पर बढ़ता भरोसा रुपये की इस गिरावट के लिए सबसे बड़े कारण बताए जा रहे हैं. वैश्विक स्तर पर इस ट्रेड वॉर के चलते लगातार डॉलर में दुनिया का भरोसा बढ़ रहा है और डॉलर की जमकर खरीदारी का जा रही है. वहीं दुनियाभर में उभरते बाजारों की मुद्राओं को नुकसान उठाना पड़ा रहा है.
जानकारों का यह भी कहना है कि तुर्की की मुद्रा लीरा में जारी गिरावट जहां समूचे यूरोप की मुद्राओं के लिए संकट बनी है, वहीं यूरोप की मुद्राओं में गिरावट से उभरती अर्थव्यवस्थाओं के सामने संकट छाया हुआ है. इसके अलावा वैश्विक स्तर पर कच्चे तेल की कीमतों में जारी तेजी भी इन अर्थव्यवस्थाओं की मुद्राओं के लिए गंभीर चुनौती पेश कर रही है.
आम आदमी को क्या नुकसान?
रुपये की वैश्विक बाजार में कीमत का सीधा असर आम आदमी पर पड़ता है. बेहद सरल शब्दों में इस असर को कहा जाए तो बाजार में सब कुछ महंगा होने लगता है. रुपये की कीमत में गिरावट आम आदमी के लिए विदेश में छुट्टियां मनाने, विदेशी कार खरीदने, स्मार्टफोन खरीदने और विदेश में पढ़ाई करने को महंगा कर देता है. इसके चलते देश में महंगाई दस्तक देने लगती है. रोजमर्रा की जरूरत के उत्पाद महंगे होने लगते हैं. आप कह सकते हैं कि डॉलर के मुकाबले रुपये का लगातार कमजोर होने आम आदमी के लिए रोटी, कपड़ा और मकान को महंगा कर देता है.
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वहीं रुपये के कमजोर होने के असर से आम आदमी के लिए होम लोन भी महंगा हो जाता है. लिहाजा, साफ है कि जब डॉलर के मुकाबले रुपये में लगातार गिरावट का दौर जारी है तो यह वक्त नए होम लोन लेने का नहीं है. इसके अलावा कमजोर रुपये के चलते देश का आयात महंगा हो जाता है. ऐसे वक्त में जब कच्चे तेल की कीमतें पहले से ही शीर्ष स्तर पर चल रही हैं, कमजोर रुपया सरकारी खजाने पर अधिक बोझ डालता है और सरकार का चालू खाता घाटा बढ़ जाता है.
आम धारणा है कि रुपये की छपाई के साथ-साथ वैश्विक मुद्रा बाजार में रुपये को ट्रेड कराने में रिजर्व बैंक की अहम भूमिका है. डॉलर के मुकाबले रुपये की मौजूदा गिरावट को देखते हुए इंडिया टुडे हिंदी के संपादक अंशुमान तिवारी का कहना है कि रिजर्व बैंक के पास रुपये की चाल को संभालने के लिए अब कोई विकल्प नहीं बचा है. अंशुमान ने कहा कि मौजूदा स्थिति इसलिए भी पेंचीदा है क्योंकि अब रिजर्व बैंक रुपये को बचाने के लिए कुछ कदम उठाता भी है तो वह कामयाब नहीं होगा क्योंकि रुपया पूरी तरह से वैश्विक स्थिति का मोहताज है, जिनपर हमारा यानी आरबीआई या सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है.
इस बात की पुष्टि मुद्रा बाजार के कुछ ट्रेडर्स भी करते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो बुधवार को रुपये के 71.95 प्रति डॉलर के स्तर पर गिरने के बाद केन्द्रीय रिजर्व बैंक ने रुपये को संभालने के लिए लगभग 1.5-2 अरब डॉलर अपने विदेशी मुद्रा भंडार से खर्च किए. लेकिन गुरुवार सुबह यह कदम भी काम नहीं आया. गुरुवार सुबह डॉलर के मुकाबले थोड़ी मजबूती के साथ खुलने के बाद एक बार फिर रुपया 72 के मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे चला गया और केन्द्रीय बैंक की कवायद धरी की धरी रह गई.
रुपए की पिटाई के लिए जिम्मेदार कौन?
किसी देश की मुद्रा उसकी अर्थव्यवस्था की सेहत को स्पष्ट करती है. आर्थिक जानकारों का मानना है कि मुद्रा को संचालित करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उस देश की सरकार की होती है. वहीं भारतीय रुपये में जारी गिरावट पर बिजनेस टुडे के संपादक राजीव दुबे का कहना है कि रुपये को ऐसी स्थिति से बचाने के लिए केन्द्र सरकार को देश में एक्सपोर्ट को बढ़ाने-दिलाने के साथ-साथ एफडीआई और एफपीआई में इजाफा कराना होगा.
दूबे के मुताबिक यह काम मौजूदा स्थिति में नहीं बल्कि एक लंबी अवधि के दौरान किया जाता है. यदि देश में आर्थिक सुस्ती का माहौल नहीं होता को रुपया डॉलर के मुकाबले इस स्थिति में नहीं फंसा होता. लिहाजा, मौजूदा स्थिति से रुपये को निकालने के लिए एक्सपोर्ट में बड़ा इजाफे के साथ-साथ देश में बड़ा विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश की जरूरत है. राजीव का मानना है कि यदि इन तीनों फ्रंट पर सरकार ने बीते कुछ वर्षों को दौरान बेहतर काम किया होता तो रुपए मौजूदा स्थिति में नहीं पहुंचा होता.