आप सभी जानते ही होंगे कि सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को “सु” एवं “अस्ति” का मिश्रण योग माना जाता है और यहाँ “सु” का अर्थ है- शुभ और “अस्ति” का- होना. ऐसे में संस्कृत व्याकरण के अनुसार “सु” एवं “अस्ति” को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है “स्वस्ति” अर्थात “शुभ हो”, “कल्याण हो”. इसी के सतह स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। ‘सु’ का अर्थ अच्छा, ‘अस’ का अर्थ सत्ता ‘या’ अस्तित्व और ‘क’ का अर्थ है कर्ता या करने वाला और इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला. इस कारण से देवता का तेज़ शुभ करने वाला – स्वस्तिक करने वाला है और उसकी गति सिद्ध चिह्न ‘स्वस्तिक’ कहा गया है. तो आइए आज जानते हैं इसको लेकर धर्मिका मान्यताएं.
# कहते हैं किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करना शुभ होता है और इसी के साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर भाग जाती है.
# कहा जाता है इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्योहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित करते है एवं भावपूर्वक ईश्वर से प्रार्थना की जाती है कि- “हे प्रभु! मेरा कार्य निर्विघ्न सफल हो और हमारे घर में जो अन्न, वस्त्र, वैभव आदि आयें वह पवित्र बनें।”
# आप सभी को बता दें कि देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझते हैं और स्वस्तिक का चिह्न वास्तु के अनुसार भी कार्य करता है, इसे भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वस्तिक अंकित करने से किसी की बुरी नज़र नहीं लग पाती है.
# वास्तु के अनुसार पूजा स्थल, तिज़ोरी, अलमारी में भी स्वस्तिक स्थापित करना चाहिए और महिलाएँ अपने हाथों में मेंहदी से स्वस्तिक चिह्न बनाती हैं तो इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति मिल जाती है.