पर्यावरणविद डा. राजेंद्र सिंह ने कहा कि जब तक हमने नीर, नारी, नदी को नारायण के रूप में सम्मान दिया, तब तक हम पूरी तरह से सुरक्षित थे। किन्तु आज हमने पानी को उपयोग करने बजाय, हम उसका उपभोग करने लग गए हैं। यह कहना है रैमन मेग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित और वाटरमैन के नाम से विख्यात पर्यावरणविद् डा. राजेंद्र सिंह का। डा. सिंह उदयपुर के निजी जनार्दनराय नागर डीम्ड विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में भाग लेने आए हुए थे। इस दौरान उन्होने कहा कि हम नदियों का निरंतर दोहन करते जा रहे हैं, इसके संरक्षण की ओर ध्यान ही नहीं दिया, जिसका परिणाम है कि नदियां नालों में तब्दील होती जा रही हैं। जबकि जरूरत ‘रिवर को सीवर’ से मुक्त करने की है। भूमि की हरितिमा को बढ़ाने के लिए नदियों के साथ जल कुंडों को भी संरक्षित किए जाने की भी जरूरत है। उनके मुताबिक, नदी के पुनर्जन्म का काम महज नदी का काम नहीं, बल्कि यह लोगों के पुनर्जीवन का सवाल है। यह तब तक पूर्णाहूति में तब्दील नहीं हो सकती, तब तक कि लोगों की आंखों में पानी नहीं आ जाए। लोगों की आंखों का यही पानी कुओं और धरती के पेट को पानी से लबरेज करेगा और ये तभी संभव है, जब हम ‘साइंस विद सेंस और कामन सेंस को अपने जीवन से जोड़ेंगे।
पानी का संरक्षण नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियां कभी माफ नहीं करेंगी
वाटरमैन राजेंद्र सिंह का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने भरी-पूरी सदा नीरा नदियों का उपहार दिया। अगर हमने इन्हें सहेजने, संवारने की दिशा में काम नहीं किया तो हमारी भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं कर पाएंगी। अगर हमें नदियों के पुनर्जनन की दिशा में काम करना है तो हमें हमारी सोच, प्रकृति के साथ हमारे संबंधों तथा शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन कर उस बुनियादी तालीम से जुड़ना होगा। जो न केवल हमें वैश्विक गुरु बनने के अपने उस पथ पर अग्रसित करेगी, जो हमने कहीं खो दिया है। उन्होंने कहा कि नदी के पुर्नजन्म की प्रक्रिया में प्रकृति द्वारा प्रदत्त जल को सहेजने, संवारने, पुनर्चक्रण की प्रक्रिया से जुड़ने के साथ यदि हमारे व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है, तब हमें प्रकृति के साथ आत्मिक संबंध तथा मानवता से जुड़ने का एहसास होता है।