स्कूल के दिनों की जब भी बात आती है तो सबसे पहले हमारे जेहन में अपने स्कूल की इमारत और अपनी कक्षा की तस्वीरें सामने आती हैं। कक्षा में कतारबद्ध बेंच और ठीक सामने ब्लैकबोर्ड और हमारे अध्यापक खड़े होकर हमें पढ़ाते थे। आज भी कक्षा-कक्षों का यही प्रारूप सबसे अच्छा और व्यवस्थित माना जाता है, लेकिन शिक्षाविदों की मानें तो पढ़ाई के यह तरीके गुजरे जमाने की बात हो गए हैं। बच्चों को पढ़ाई के लिए और अधिक आरामदायक और सीखने का माहौल देने की जरूरत है। इसके लिए डिजाइनर और वास्तुकार ऐसे जगहों का निर्माण करने में सहायता कर सकते हैं।

शिक्षा सलाहकार बॉब पर्लमैन कहते हैं कि अब लोग ‘क्लासरूम’ में ही पढ़ाई करना पसंद नहीं करते। छात्र अब स्टूडियो, प्लाजा और घरों में ग्रुप स्टडी कर अपना ज्ञान बढ़ा रहे हैं। उन्होंने कहा कि अब छात्र सीखने-सिखाने के लिए कक्षाओं से बाहर निकल कर प्रोजेक्ट प्लानिंग रूम, वर्क रूम और प्रयोगशालाओं में रहकर भी बहुत कुछ सीख जाते हैं। पर्लमैन ने कहा कि किसी भी विषय के बारे में केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता, उसके बारे में व्यावहारिक जानकारी होना भी जरूरी है। तभी बच्चों की विषय में पकड़ और ज्यादा मजबूत होती है।
पिछली सदी के सातवें दशक में अमेरिकी मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट सोमर एक पत्रिका के संपादक जो इरिप के साथ बातचीत में पारंपरिक कक्षाओं के डिजाइन पर चिंता जताते हुए इन्हें बदलने की बात कही थी। उन्होंने कहा कि था क्लासरूम केवल एक वर्गाकार जगह नहीं हो सकती। बंद कमरों में जहां प्रकाश और गर्मी अक्सर बच्चों को परेशान करती है, इससे अच्छा है कि वह खुले मैदान में पढ़ाई करें। इरिप ने कहा कि कक्षाओं के बंधन से मुक्त होने से वास्तविकता में एक बहुत बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि नए हाइब्रिड मॉडल में कक्षाओं में ऐसे दरवाजे और खिड़कियां बनानी चाहिए, जिससे सूर्य का समुचित प्रकाश बच्चों पर पड़े। इससे शिक्षकों को भी अच्छे परिणाम देखने को मिलेंगे।
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