कर्जमाफी को लेकर देश का किसान आए दिन आंदोलन के लिए सड़क पर उतरने को मजबूर हो रहा है. इसी कड़ी में हजारों किसान उत्तराखंड के हरिद्वार से चलकर मंगलवार को दिल्ली-यूपी के बॉर्डर पर पहुंचे थे तो पुलिस ने लाठी, आंसू गैस और पानी की बौछारों का इस्तेमाल कर उन्हें दिल्ली की सरहद में आने से रोका.
सरकार से बातचीत और पूरे दिन चले संघर्ष के बाद आखिरकार खून से लथपथ सैकड़ों किसान देर रात दिल्ली में दाखिल हो पाए और चौधरी चरण सिंह की समाधि पर फूल चढ़ाया और आंदोलन खत्म करने की घोषणा करके वापस लौट गए. दिल्ली दरबार से खाली हाथ लौटे किसानों की नाराजगी अभी वैसे ही कायम है. उनपर लाठीचार्ज के खिलाफ देश में कई जगह प्रदर्शन हो रहे हैं. आखिर किसान बार-बार दिल्ली तक प्रदर्शन क्यों कर रहे हैं. कर्जमाफी उनकी समस्या का महज एक पक्ष है. आजतक ने किसानों की परेशानी की जमीनी हकीकत जानने और समझने के लिए उनसे बात की.
क्या चाहते हैं किसान?
किसान क्रांति यात्रा में बिजनौर से आए किसान अनीस अहमद कहते हैं कि सरकार किसानों की फसल की लागत का उचित मूल्य दे और उसका समय पर भुगतान कर दे तो कर्जमाफी की नौबत ही न आए. पिछले 6 महीने से अनीस अहमद का गन्ने का भुगतान नजीबाबाद क्षेत्र की द्वारिकेश शुगर मिल पर बकाया है. अनीस के मुताबिक उनके जैसे ही इलाके के बाकी किसानों का भुगतान भी नहीं हो पाया है.
अनीस कहते हैं कि उन पर 2 लाख 60 हजार का बैंक कर्ज है, जिस पर वो 12 फीसदी ब्याज दे रहे हैं. गन्ना का भुगतान न होने के चलते वे अपना बैंक का कर्ज अदा नहीं कर पा रहे हैं. वो कहते हैं कि हमें कर्ज न चुका पाने की स्थिति में बैंक को ब्याज देना पड़ता है. जबकि शुगर मिल पर हमारा लाखों का बकाया है, लेकिन उस पर हमें कोई ब्याज या बोनस नहीं मिलता है. किसानों के साथ सरकार का ये दोहरा रवैया है.
लागत बढ़ी लेकिन आय नहीं
दिल्ली के जटखोड़ गांव के रहने वाले किसान कुलदीप दहिया कहते हैं कि मोदी सरकार ने एमएसपी दो गुना करने की घोषणा की थी, लेकिन फसल की लागत में कितनी बढ़ोतरी हो गई उसे नहीं बताया. मौजूदा समय में खेती में लागत काफी बढ़ गई है, लेकिन उस हिसाब से हमें मूल्य नहीं मिल पा रहा है. वो कहते हैं कि सरकार जब फसल की खरीदारी शुरू करती है, तब तक किसान साहूकारों के हाथों बेच चुके होते हैं.
कृषि क्षेत्र के अलग बजट क्यों नहीं?
दिल्ली के बवाना इलाके के कुतुबगढ़ गांव के रहने वाले आनंद राणा कहते हैं कि राजनीतिक दलों के एजेंडे से किसान बाहर है, यही वजह है कि आज उनकी कोई बात नहीं कर रहा है. सरकार बजट बनाने से पहले औद्योगिक घरानों और कॉरपोरेट जगत के लोगों से बातचीत तो करती है, लेकिन कभी किसानों के प्रतिनिधियों की राय नहीं लेती. जबकि इस देश के 70 फीसदी लोग किसानी पर निर्भर हैं.
राणा कहते हैं कि किसान अपनी फसल में जितना लगाता है कि उसका आधा भी नहीं निकलता है. यही वजह है कि आज किसान कर्ज में डूबा हुआ है. बैंक से ज्यादा किसानों पर साहूकारों का कर्ज है.
सहारनपुर के डिक्का कला गांव के रहने वाले अब्दुस सलाम 80 बीघे के कास्तकार हैं. खेती से ही उनके परिवार का खर्च चलता है. वो कहते हैं कि शुगर मिल पर उनका ढाई लाख रुपये गन्ने का भुगतान बकाया है. फरवरी से अभी तक कोई भुगतान नहीं की गई है. ऐसे में घर चलाना मुश्किल हो रहा है. पिछले दिनों कर्ज लेकर अपने बेटे का इलाज कराया हूं.
किसान कैसे पाले परिवार?
वो कहते हैं कि महंगाई दिन दूनी रात बढ़ रही है, लेकिन हमारी फसल वही पुराने मूल्य पर बिक रही है. जबकि आज खेती के लिए डीएपी से लेकर यूरिया और बीज महंगे मिल रहे हैं. खेती में जितनी लागत आ रही है, वो निकल भी नहीं पा रहा है. जबकि हमारा पूरा परिवार खेती में लगा हुआ है.
सहारनपुर अंबेठा के रहने वाले गुलजार कुरैशी कहते हैं कि मोदी सरकार ने किसानों से जुड़े सामानों पर जीएसटी नहीं लगाने का वादा किया था. लेकिन आज ट्रैक्टर पर हमें 28 फीसदी जीएसटी देनी पड़ रही है. इसके अलावा ट्यूबवेल के बिजली कनेक्शन पर राज्य सरकार हमसे 29 हजार रुपये सालाना ले रही है. जबकि ट्यूबेल का इस्तेमाल हम महज दो महीने से कम करते हैं. इसके बावजूद पूरे साल सरकार को बिजली का बिल देना पड़ता है.
एनजीटी के आदेश से बढ़ी मुश्किल
दिल्ली के मुंगेशपुर गांव के रहने वाले दलेल सिंह कहते हैं कि एनजीटी ने दस साल पुराने ट्रैक्टर पर एनसीआर में प्रतिबंध लगा दिया है. खेती करके हम पहले से ही कर्ज में डूबे हैं ऐसे में हम हर दस साल पर कैसे नया ट्रैक्टर खरीदेंगे. इसके अलावा बैंक से कर्ज लेकर ट्रैक्टर खरीदते हैं तो 12 फीसदी ब्याज देने पड़ रहा है.
बिजली के बिल भी पैदा कर रहे हैं दिक्कत
दरियापुर कला गांव के रहने वाले विनोद शेरावत कहते हैं कि दिल्ली में सिंचाई के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है. खेती के लिए ट्यूबेल का ही सहारा है. दिल्ली में गेंहू की खेती की सिंचाई के लिए महज चार महीने ट्यूबेल का इस्तेमाल करते हैं. बाकी समय हमारा ट्यूबेल बंद रहता है. इस साल अप्रैल से पहले तक हमें 25 रुपये प्रति किलेवाट के हिसाब से देना पड़ता था. इस लिहाज में हमारा बिल 125 रुपये आता था. लेकिन बिजली कंपनियों ने अब बढ़ाकर इसे 125 रुपये प्रति किलोवाट कर दिया इस लिहाज से करीब 625 रुपये बिल आता हैं और टैक्स मिलाकर करीब 700 रुपये प्रति महीना देना पड़ रहा है. जबकि खेती से साल में करीब 10 हजार की बजत होती थी अब वो भी नहीं हो पा रही है.