अभी तक कोरोना का एक ही इलाज है टेस्ट। जो देश जितना टेस्ट करेगा, वहां यह महामारी उतनी ही नियंत्रित रहेगी। टेस्ट के आधार पर पीड़ित को न सिर्फ चिह्नित किया जा सकता है, बल्कि उनके द्वारा संक्रमण की कड़ी भी ब्रेक की जा सकती है। लिहाजा सस्ते और सटीक टेस्ट खोजने की रेस लगी है। आरटी-पीसीआर टेस्ट काफी महंगा है।
अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिर्विसटी हो या फिर अपने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आइआइटी) सभी इस संकट की घड़ी में तेजी से इस ओर शोध कर रहे हैं। कोई बीस मिनट में ही नतीजा बताने का दावा कर रहा है, कोई कुछ और। आम लोग ही नहीं, वैश्विक विशेषज्ञ भी कुछ भ्रमित हैं। ऐसे में सभी विशेषज्ञ आरटी-पीसीआर टेस्ट को ही गोल्ड स्टैंडर्ड मानकर चलने की सलाह दे रहे हैं, क्योंकि अलग-अलग तकनीक के आधार पर टेस्ट गलत नतीजे भी दे रहे हैं। यह तो तय है कि कारगर वैक्सीन से पहले सस्ती और सटीक टेस्टिंग बहुत अहम है।
आपातकाल में दी गई मंजूरी: अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने आपातकालीन प्रावधान के तहत न्यूक्लियोकैपिसिड प्रोटीन को निशाना बनाकर होने वाले एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी। इस तकनीक में र्आिटफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) की मदद से सतह से कोरोना वायरस को चिपकने देने में मदद करने वाले प्रोटीन की पहचान की जाती है। हालांकि इसे बाद में मानक के अनुरूप नहीं माना गया। इसी तरह भारत में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) ने भी एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी है।
लापरवाही पड़ सकती है भारी: एफआइएनडी की सीईओ कैथरिन बोएहमे चेतावनी देती है कि जल्दीबाजी के चक्कर में नए टेस्ट विकसित करने वाले विशेषज्ञ दूसरी बीमारियों को नजरअंदाज कर रहे हैं। वह कहती हैं कि तमाम अन्य वायरस की वजह से भी श्वसन प्रणाली में सूजन जैसी दिक्कत आ सकती है, साथ ही हमें मधुमेह को भी नहीं भूलना चाहिए। ज्यादातर टेस्ट में काम आने वाले सामानों का बड़े स्तर पर उत्पादन संभव नहीं है।
टेस्ट बन जाएंगे इतिहास: कैथरिन बोएहमे का कहना है कि परख आधारित नए टेस्टों के जरिये हम कोरोना संक्रमण के शिकार मरीजों की पहचान के लिए टेस्ट की संख्या बढ़ा सकते हैं। हालांकि वह स्वीकार करती हैं कि नई तकनीक पर आधारित ज्यादातर टेस्ट इस साल के अंत तक खत्म हो जाएंगे।
क्या है चुनौती: कोरोना वायरस को हम बहुत कम जानते हैं। टेस्ट में काम आने वाले पदार्थों के उत्पादन का उचित सिस्टम नहीं है। कोरोना वायरस को सतह से चिपकने में मदद देने वाले प्रोटीन की पहचान एआइ से करना कठिन काम है। कोरोना वायरस में होने वाले म्यूटेशन एंटीजन टेस्ट की राह को मुश्किल कर रहे हैं।
आपातकाल में दी गई मंजूरी: अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने आपातकालीन प्रावधान के तहत न्यूक्लियोकैपिसिड प्रोटीन को निशाना बनाकर होने वाले एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी। इस तकनीक में र्आिटफिशियल इंटेलिजेंस (एआइ) की मदद से सतह से कोरोना वायरस को चिपकने देने में मदद करने वाले प्रोटीन की पहचान की जाती है। हालांकि इसे बाद में मानक के अनुरूप नहीं माना गया। इसी तरह भारत में इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आइसीएमआर) ने भी एंटीजन टेस्ट को मंजूरी दी है।
सस्ती तकनीक का लक्ष्य: सीधी सी बात है कि कोरोना के आरएनए से डीएनए विकसित करना कठिन और महंगी प्रक्रिया है। ऐसे में दुनियाभर के शोधकर्ता ऐसे पदार्थों की खोज में हैं, जो कोरोना वायरस से चिपक जाएं, लेकिन इंसान की कोशिका या फिर हमारे शरीर में मौजूद अन्य पदार्थों से नहीं। इसी तकनीक पर इंफ्लूएंजा का टेस्ट किया जाता है। शोधकर्ताओं का दावा है कि यह तकनीक सस्ती और सटीक है, लेकिन कोरोना वायरस में होने वाले म्यूटेशन इस काम को चुनौतीपूर्ण बनाते हैं।
ज्यादातर सस्ते टेस्ट मानक पर खरे नहीं: फाउंडेशन फॉर इनोवेटिव न्यू डायगनोस्टिक्स (एफआइएनडी) यूनिर्विसटी ऑफ हॉस्पिटल जिनेवा और डब्ल्यूएचओ के साथ दुनियाभर में विकसित की गईं नई टेस्टिंग तकनीकों की परख कर रहा है। संस्था तमाम तकनीकों से संतुष्ट नहीं है। आरटी- पीसीआर तकनीक पर आधारित टेस्ट तो मानक पर खरे उतरे हैं, लेकिन एंटीजन तकनीक पर आधारित टेस्ट मानक पर खरे नहीं उतर रहे हैं।
गोल्ड स्टैंडर्ड यानी आरटी-पीसीआर टेस्ट: रिवर्स-ट्रांसक्रिप्ट पॉलीमर चेन रिएक्शन यानी आरटी-पीसीआर टेस्ट में स्वैब के जरिये कोरोना वायरस का आरएनए हासिल करने की कोशिश की जाती है। स्पैल में मौजूद आरएनए को रिवर्स-ट्रांसक्रिप्ट एंजाइम की मदद से डीएनए में बदल दिया जाता है। 94-96 डिग्री सेल्सियस पर इस डीएनए को अलग-अलग बांटा जाता है। फिर इसमें प्राइमर्स मिलाया जाता है, जिसे 48-72 डिग्री सेल्सियस पर प्रोसेस किया जाता है, जिससे फिर डीएनए को 72 डिग्री सेल्सियस पर अलग किया जाता है। डीएनए पॉलीमर एंजाइम को इस प्रक्रिया में तब तक दोहाराया जाता है, जब तक कोई नतीजा नहीं मिल जाए। आरटी-पीसीआर टेस्ट में हाईटेक उपकरणों का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें इस्तेमाल किए जाने वाले पदार्थ काफी महंगे हैं। इसलिए टेस्ट काफी महंगा हो जाता है। हालांकि इससे मिलने वाले नतीजे एकदम सटीक होते हैं। इसलिए इसे गोल्ड स्टैंडर्ड भी कहा जाता है।