प्रदोष का व्रत हर महीने में दो बार आता है। यह व्रत महादेव को समर्पित माना जाता है। जी दरअसल एकादशी के जैसे ही इस व्रत को भी काफी श्रेष्ठ व्रत कहते है। ऐसा माना जाता है कि, इस व्रत को रखने और विधि-विधान से महादेव की आराधना करने से वे अत्यंत प्रसन्न होते हैं और व्यक्ति की सभी मुश्किलें और बाधाओं को खत्म करते हैं। अब आज भी यह व्रत है। जी दरअसल आज शुक्रवार है और आज के दिन प्रदोष व्रत होने की वजह से इसे शुक्र प्रदोष कहा जाएगा। अब आज हम आपको बताने जा रहे हैं इस व्रत का चलन कैसे शुरू हुआ और इस व्रत को पहली बार किसने रखा था?

ये है पौराणिक कथा- पौराणिक कथा को माने तो प्रदोष का व्रत पहली बार चंद्रदेव ने क्षय रोग से मुक्ति के लिए रखा था। कहते हैं कि चंद्रमा का विवाह दक्ष प्रजापति की 27 नक्षत्र कन्याओं के साथ हुआ था। इन्हीं 27 नक्षत्रों के योग से एक चंद्रमास पूरा होता है। चंद्रमा खुद बेहद रूपवान थे और उनकी सभी पत्नियों में रोहिणी अत्यंत खूबसूरत थीं। इसलिए उन सभी पत्नियों में चंद्रमा का विशेष लगाव रोहिणी से था। चंद्रमा रोहिणी से इतना प्रेम करते थे कि उनकी बाकी 26 पत्नियां उनके बर्ताव से दुखी हो गईं और उन्होंने दक्ष प्रजापति से उनकी शिकायत की।उस दौरान बेटियों के दुख से दुखी होकर दक्ष ने चंद्रमा को श्राप दे दिया कि तुम क्षय रोग से ग्रसित हो जाओ। धीरे-धीरे चंद्रमा क्षय रोग से ग्रसित होने लगे और उनकी कलाएं क्षीण होने लगीं।
इससे पृथ्वी पर भी बुरा असर पड़ने लगा। जब चंद्रदेव अंतिम सांसों के करीब पहुंचे तभी नारद जी ने उन्हें महादेव की आराधना करने के लिए कहा। इसके बाद चंद्रदेव में त्रयोदशी के दिन महादेव का व्रत रखकर प्रदोष काल में उनका पूजन किया। व्रत व पूजन से प्रसन्न होकर महादेव ने उन्हें मृत्युतुल्य कष्ट से मुक्त कर पुनर्जीवन प्रदान किया और अपने मस्तक पर धारण कर लिया। कहते हैं चंद्रमा को पुनर्जीवन मिलने के बाद लोग अपने कष्टों की मुक्ति के लिए हर महीने की त्रयोदशी तिथि को महादेव का व्रत व पूजन करने लगे।
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