मोदुनिया के दखल से दूर, घने जंगलों की रहस्यमयी ओट में खुद को सहेज अबूझमाड़ी समाज ने क्या पाया? शेष दुनिया जिसे विकास कहती है, इनके लिए वह मशीनी है, बेमानी है। वे जिसे विकास कहते हैं, वह खालिस है, इंसानी है। इंसानियत बड़ी चीज है। वही पीछे छूट गई तो कैसा विकास? अबूझमाड़ हमें आईना दिखा रहा है। संकीर्ण, एकांगी और विकृत होते संवेदनाहीन महानगरीय समाज को सीख दे रहा है।
सीने में जलन…
सीने में जलन, आंखों में तूफान सा क्यों है,
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है।
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यों है1
तनहाई की ये कौन सी मंजिल है रफीको,
ता-हद-ये-नजर एक बयाबान सा क्यों है1
क्या कोई नयी बात नजर आती है हममें,
आईना हमें देख के हैरान सा क्यों है1
आईना दिखाता अबूझमाड़
देश की राजधानी दिल्ली दुनिया के कमाऊ और विकसित शहरों की दौड़ में है। लेकिन इसी दिल्ली की सड़ांध मारती संकीर्ण बस्तियों में भूख से मौत की खबरें आती हैं। दूसरी ओर देश के सबसे पिछड़े माने जाने वाले छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल अबूझमाड़ में न तो भूख से कोई मरता है, न ही यहां वृद्धाश्रम, अनाथाश्रम और बेसहारों के लिए शेल्टर होम की दरकार है।
आदिवासियों ने सदियों से इंसानियत को सहेजे रखा है। यही इनके लिए विकास का पैमाना है। यही इनकी बड़ी सफलता है, जो इन्हें हमसे कहीं अधिक विकसित, कहीं अधिक बेहतर और अधिक समझदार निरूपित करती है।
सहकारिता में गुथा हुआ है यहां का अद्भुत सामाजिक ताना-बाना
इनका सामाजिक ढांचा नई दिल्ली की मॉडर्न सोसायटी के मुकाबले कहीं अधिक मजबूत, अधिक जिम्मेदार और अधिक संवेदनशील है। जहां बेसहारा, विधवाओं व बुजुगरें का तिरस्कार नहीं होता। जहां कोई पराया नहीं, सभी अपने हैं। सहकारिता के मजबूत ताने-बाने में गुथे हुए इस सुव्यवस्थित समाज को अति विकसित समाज कहने में कोई संशय नहीं।
देश-दुनिया के लिए अजूबा ही सही
बस्तर संभाग के करीब चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला अबूझमाड़ भले ही देश-दुनिया के लिए अजूबा हो, लेकिन यहां का सामाजिक ढांचा बेमिसाल सहकारिता की सीख देता है। यहां के गांवों में कोई भूखा नहीं रह सकता क्योंकि सभी को सभी की फिक्र है।
बस्तर के मानव विज्ञानी डॉ. राजेंद्र सिंह बताते हैं कि अबूझमाडि़ए नि:शक्त, विधवा, बेसहारा व बुजुर्गों की सेवा के लिए कटिबद्ध रहते हैं। दिव्यांग अथवा ऐसा कोई व्यक्ति जो अपनी खेती नहीं कर सकता, उसके खेत का काम गांव के लोग ही करते हैं और उसका भरण-पोषण भी करते हैं। कोई व्यक्ति अपना मकान अकेले नहीं बनाता, न ही मजदूरों की जरूरत पड़ती है। पूरा गांव उस व्यक्ति को घर बनाने में मदद करता है।
तड़के से दूर
हर तरह के ‘तड़के’ से दूर यह दुनिया प्रकृति के करीब है। शाकाहारी हो या मांसाहारी, वे भोजन पकाने के लिए तेल का उपयोग नहीं करते। पानी से ही खाना पकाने के तरीके को सेहत के लिए उपयुक्त मानते हैं। बीएमओ डॉ. बीएन बनपुरिया के मुताबिक माडि़यों के खान-पान के तरीके बेहद सटीक होने से उन्हें हार्ट अटैक का दौरा नहीं के बराबर पड़ता है।